धरम-धरम के खेल में आजकल बच्चे नया हथियार बने हैं. अकबरुद्दीन ओवैसी की मानें तो पैदा होते ही सारे लोग मुसलमान होते हैं जबकि मोहन भागवत कहते हैं कि सारे लोग हिन्दू होते हैं.
समझने वाली बात ये है कि ऐसी बातें करने वाले सारे लोग नासमझ होते हैं. क्योंकि पैदा होने वाला तो दिगम्बर जैन होता है. साक्षी महाराज चाहते हैं हिन्दू अपना धर्म बचाने के लिए चार-चार बच्चे पैदा करें. वहीं अशोक सिंघल चाहते थे कि सारे हिन्दू पांच बच्चे पैदा करें,समस्या इनके कम्युनिकेशन गैप में हैं. ये अपनी ही एक सी बातों पर एकमत नहीं हो पाते और धर्म रक्षा को आतुर हिन्दू चार या पांच के फेर में लालू याद बन परिवार का हाल बिहार जैसा कर लेता है.
मान लीजिये इनकी बात मानकर किसी ने धर्मरक्षार्थ चार-पांच बच्चे पैदा कर भी लिए, तो अगले बीस साल तो बेचारा नर्सिंग होम के बिल ही भरता रह जाएगा. आजकल अस्पताल दांत दर्द की दवा लेने जाओ तो भारी-भरकम बिल के साथ दिल का रोग अलग मुफ्त मिलता है. बीमार होना भी बस अमीरों के बस का रह गया है. कुछ रोज में अस्पताल के बिस्तर से भी सेल्फी डालकर शो-ऑफ करने का ट्रेंड न चल जाए तो कहिएगा. चाहिए ये कि ऐसी सलाह देने वाले अगर इतने ही फिक्रमंद हैं तो कम से कम दो बच्चों के साल भर डायपर का खर्चा ही उठा लें.
रात में रोते चार-चार बच्चों को सुलाना अगर सबसे मुश्किल काम जान पड़ता हो तो कभी नर्सरी एडमिशन की लाइन में लग कर देखिए. ऐसा लगेगा कि इस जन्म में एक टांग में खड़े रहकर तपस्या करो तब हरि तो मिल सकते हैं पर दोनों टांगों पर खड़े रहने के बाद भी एक फॉर्म मिलने से रहा. फॉर्म मिल भी गया तो एडमिशन की क्या गारंटी?. ‘देश में सरकारी स्कूल भी तो हैं’ वाली दलील देने को इच्छुक पहले ये निश्चित कर लें कि उनके बच्चे के कान्वेंट की फीस की तीसरी इंस्टालमेंट की आखिरी तारीख निकल तो नहीं गई?
सरकारी स्कूलों में भी बच्चे मन्त्रपूरित जल छिड़क
कर नही पढ़ लेते हैं. एक बच्चे को पढ़ाकर लायक बनाने में हालत पतली हो जाती है अगर हर किसी के चार बच्चे हों तो स्थिति ये होगी कि देश में अभिभावक कम
कुपोषित भारत के ब्रांड अम्बेस्डर ज्यादा नजर आएंगे. बच्चे न हों तो इंसान वाजपेयी, मोदी, हजारे और कलाम सा बनता है. मायावती और जयललिता सा भी.और
ज्यादा हों तो लालू-करुणानिधि सा. हां कैलाश सत्यार्थी सा भी. तो कुल जमा ये है कि कबीलों का जमाना गया जब आप ज्यादा भीड़ जुटाकर बगल के कबीले पर धावा
बोल दाना-पानी लूटा करते थे,बच्चे कितने हों ये फैसला लोग खुद कर सकते हैं. बच्चे उतने ही हों जितने पालने की कुव्वत और छत में कपडे़ सुखाने की जगह हो.
(युवा व्यंग्यकार आशीष मिश्र पेशे से इंजीनियर हैं और इंदौर में रहते हैं.)