कोटा रेलवे स्टेशन पर पांच घंटे लेट हो चुकी ट्रेन का इंतजार करते हुए एक बात समझ में आ चुकी थी. पूर्वजन्म के पाप जैसा कुछ नहीं होता. पापों की एक्सपायरी डेट होती है. इंसान अपने कुकर्मों के फल इसी जन्म में भुगतता है. मरने के बाद पापात्मा को 'डीप फ्राई' नहीं किया जाता. न नुकीले भालों से नेथा जाता है. पापों का फल मिलता है. जीते-जी पापियों की ट्रेन लेट हो जाती है.
स्वर्ग-नर्क की अवधारणा ही गलत है. स्वर्ग और नरक यहीं हैं. ट्रेन के डिब्बों में. वेटिंग रूम्स में. प्लेटफॉर्म पर. हर गुजरते मिनट के साथ अपना किया छटांक भर पाप मुझे कटता दिखता है. झूठे हैं वो लोग जो कहते हैं श्मशान में वैराग्य पनपता है. वैराग्य पनपता है रेलवे स्टेशनों के प्लेटफॉर्म पर. नरक ब्रांड है. प्लेटफॉर्म्स नरक का छुट्टा आउटलेट हैं.
मैं बोरियत मिटाने को नकमिटनियां निकाल रहा था. बोर होता आदमी कुछ भी कर सकता है. कुछ न हो तो कान में तीली डाल सकता है. कान से मोम निकाल सकता है. उंगलियां चटका सकता है. गर्दन चटका सकता है. पीठ खुजा सकता है. आंख के नीचे उंगली दबा एक चीज को दो कर देख सकता है. दांत में फंसी कटहल जीभ से निकालने की कोशिश कर सकता है.
भगवान ने आदमी की देह में कुछ लूपहोल्स छोड़े हैं. बोर होता आदमी इन्हीं के सहारे वक़्त काट सकता है. बोरियत से भरा आदमी कुछ भी सोच सकता है. मैं सोच रहा था 'बोरियत' भी कोई शब्द होता है क्या? उधर रेलवे उद्घोषिका ट्रेन के आधा घंटा देर से आने की अभूतपूर्व घटना के शोक में खेद पर खेद प्रकट किए जा रही थी. मैं सोच रहा था जितना खेद एक रेलवे उद्घोषक अपनी महीने भर की ड्यूटी में प्रकट कर डालते हैं उसका दस फीसदी उसे वेतन भी न मिलता होगा.
ट्रेन आने का समय होने ही वाला था दस मिनट पहले उद्घोषिका ने खेद प्रकट करना भी बंद कर दिया. मैं अब भी सोच रहा था. क्या वाकई भारतीय रेलवे को इतना खेद प्रकट करने की जरूरत है? यात्रियों के लिए ट्रेन देर से आना उतना ही आम है जितना आम प्लेटफॉर्म पर चीजों की कीमतें बढ़ जाना. समझ इतनी विकसित हो गई है कि लोग घर से ट्रेन छूटने के वक़्त के बाद निकलते है कि इतने में भी आधा घंटा तो प्लेटफॉर्म पर बिताना ही पड़ेगा. अगर रेलवे को खेद प्रकट करना है तो तब करे जब ट्रेन वक़्त पर पहुंच जाए. सही वक्त पर ट्रेन पहुंचने से जाने कितनों की ट्रेन छूट जाती है. ट्रेन का वक्त पर आना हमें चौंका जाता है. बिल्कुल वैसे ही जैसे ट्रेनों में कभी साफ टॉयलेट मिल जाना चौंका जाता है. ट्रेन के साफ डिब्बे देखकर भी भावुक लोग दुखी हो जाते हैं. साफ ट्रेनें मासूम बच्चों सरीखी होती हैं. ये सोचकर दुख होता है कि कल को तो दुनिया इन्हें अपने रंग में रंग ही देगी.
ट्रेन के देर से आने का वक़्त भी गुजर गया. ट्रेन अब भी न आई. आधे घंटे और बीते, ट्रेन तब भी न आई. मैंने पूछताछ खिड़की पर जाकर पूछा. खिड़की के पार एक मोहतरमा थीं. मोहतरमा खूबसूरत थीं. लड़कियों को मोहतरमा लिख दो तो और खूबसूरत लगने लग जाती हैं. मोहतरमा ने नजर उठाकर शक्ल देखनी भी मुनासिब न समझी. देखती तब भी कौन सा पहचान लेतीं? सवाल अनसुना कर दिया गया था. मुझे जरा बेइज्जती महसूस हुई. सुबह से गर्मी के अलावा ये दूसरी चीज थी जो मैं महसूस कर पा रहा था. खूबसूरत लड़कियां अक्सर भावुक लोगों को बेइज्जत कर जाती हैं.
मैंने दोबारा पूछा तो कहा प्लेटफॉर्म नम्बर तीन पर खड़ी है. मैंने नकारा कि वहीं से आ रहा हूं. आधे घन्टे बीत गए हैं. ट्रेन का कुछ पता नही हैं. लेट है तो एक बार में ही बता दीजिये कुल कितनी लेट है. कब आएगी? मोहतरमा ने फिर कहा - प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर खड़ी है. एक वक़्त के बाद लड़कियां खूबसूरत लगना बंद हो जाती हैं. ये वही पल था.
लौटते हुए मैंने सोचा शायद वो सही कह रही थी. ट्रेन प्लेटफॉर्म नम्बर तीन पर खड़ी है मैं ही नही देख पा रहा हूं. देख तो मैं हवा को भी नहीं पाता तो क्या हवा नहीं है? ट्रेन लेट भी नही है शायद मैं ही हूं जो पहले आ गया हूँ. फिर एक घन्टे बाद ट्रेन आई. साढ़े छह घंटे लेट हो चुकी ट्रेन में बैठने को भी कोई नही था. सारी ट्रेन खाली थी. फिर भी लोग एक ख़ास सीट के लिए लड़ रहे थे. ट्रेनों की संस्कृति है. लोग दुनिया-जहान में पलते हैं पढ़ते हैं और कमाते हैं ताकि ट्रेन का टिकट ले सकें. ट्रेन में सीट के लिए लड़ सकें. वो मिल जाए तो विंडो सीट के लिए लड़ते हैं. विंडो सीट भी मिल रही हो तो चेयर कार में आमने -सामने की सीट के लिए लड़ते हैं. वो भी मिल जाए तो पंखा चलाने-बत्ती बुझाने के लिए लड़ते हैं.
लोग बातें कर रहे थे ट्रेन के देर से आने की. मुझे पता था कि ये बातें अब महंगाई से होकर राजनीति और अगले चुनावों पर आ जाएंगी. मैं अब भी सोच रहा था जब तक ट्रेनें हैं, वे देर से आती रहेंगी. लोग विंडो सीट के लिए झगड़ते रहेंगे. सरकारों को कोसेंगे और खूबसूरत लड़कियां भावुक लड़कों को बेइज्जत करती रहेंगी.