बंगलुरु में बीजेपी की कार्यकारिणी की बैठक तय वक्त पर खत्म हो गई. मार्गदर्शक मंडल के सीनियर मोस्ट नेता लालकृष्ण आडवाणी के भाषण पर शुरू हुआ अटकलों का दौर अफवाहों के रास्ते एक नए प्रस्ताव के रूप में सामने आया - 'मार्गदर्शक मंडल कभी भी मार्गदर्शन दे सकता है . यह उसका अधिकार है. मंच से उसका बोलना या न बोलना खास मायने नहीं रखता.'
आडवाणी अब कम बोलते हैं. बोलने से ज्यादातर परहेज ही करते हैं. हां, जब 'मन की बात' करनी हो तो ब्लॉग है ना. हम आपसे आडवाणी का वो पोस्ट शेयर कर रहे हैं जो कभी पब्लिश न हो सका.
"बात 1980 की है. तारीख 6 अप्रैल ही थी - यानी आज ही का दिन. मैंने और अटल जी ने एक सपना देखा था. वक्त के साथ हम आगे बढ़े. सड़क पर चार साल के सफर के बाद भी संसद में हम दो कदम ही चल सके. फिर हमारे सपने में और भी लोग शामिल होते गए. हमारे सपने का दायरा बढ़ता गया.
करीब 22 साल बीते होंगे . सपने को हकीकत में बदलने के लिए हम पड़ाव दर पड़ाव चलते रहे. अटल जी राजधर्म को लेकर हमेशा ही सख्त रहे. राज धर्म को लेकर अटल जी का जो नजरिया था, मैं भी उससे पूरा इत्तेफाक रखता था. बस, मैं उसके व्यावहारिक पक्ष का पक्षधर रहा.
राज धर्म के रास्ते हम सपने को पूरा होते देखते रहे. मगर कुछ लोग राजधर्म के रास्ते अपने सपने पूरे करने में जुट जाएंगे - ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था. सपने देखना हर किसी का हक है. आपने एक सपना देखा. अपने सपने को पूरा किया. ठीक बात है. खुद के लिए सपने देखना व्यक्ति का अधिकार होता है, इसमें किसी को शायद ही कभी एतराज होगा.
अगर आप समाज के लिए सपने देखते हैं तो यह आपका कर्तव्य है. अगर आप देश के लिए सपने देखते हैं तो यह आपकी जिम्मेदारी है. किसी और को सपने देखने के लिए प्रेरित करना भी आपका कर्तव्य है. आम लोगों को सपने देखने के लिए प्रेरित करना एक बड़ी जिम्मेदारी है.
अब अगर आप दूसरों को सपने दिखाते हैं तो ये अच्छी बात है. सपने दिखाने के साथ ही उसे पूरा करने में मदद करते हैं तो ये और अच्छी बात है. अगर आप अपने सपने पूरे करने के लिए दूसरों को सपने दिखाते हैं. और अपना सपना पूरा होने के बाद उसे दूसरा सपना दिखाते हैं. उसके बाद हर बार आप अपने सपने की मंजिल आगे करते जाते हैं - और दूसरों को नए सपने दिखाते रहते हैं. आप कभी पूछते भी नहीं कि उनका क्या हुआ जिन्हें आपने सपने दिखाए थे. आपको इस बात का भी इल्म न हो कि आपने किसको कितने सपने दिखाए?
आगे चलकर आप यह कह दें कि सपनों जैसी तो कोई बात ही नहीं थी - वे तो चुनावी जुमले थे. सपने दिखाना अच्छी बात है. सपने दिखा कर अपना उल्लू सीधा करना बुरी बात है. फिर चिट-फंड कंपनियों और आप में फर्क क्या बचा? वे भी तो सपने ही बेचते हैं. अगर लोग इसे नहीं तो अमानत में खयानत फिर किसे कहेंगे?
किसी को मौत का सौदागर कहना बुरी बात है. मगर किसी के बारे में किसी की निजी राय यह हो सकती है. कोई भी सौदा बुरा नहीं होता, बुरा तो सौदे के पीछे का मकसद होता है. अब कोई सपनों का कारोबार करने लगे तो उसे क्या कहा जाए?
अगर सौदे के पीछे किसी की नीयत साफ नहीं है तो सपनों के सौदागर और मौत के सौदागर में कोई खास फर्क नहीं बचता. फिर कोई निजी राय कब आम राय बन जाए इस बात की भनक तक नहीं लगती.
सपने देखना कभी खतरनाक नहीं होता. सपने दिखाना भी उतना खतरनाक नहीं होता. बात जब सपनों की होती है तो पाश खुद-ब-खुद उसमें शरीक हो जाते हैं. 'सबसे खतरनाक होता है, सपनों का मर जाना'. और जब सारी हदें पार हो जाएं - तो उससे भी खतरनाक होता है खुद के सपनों के लिए दूसरों के सपनों का गला घोंट देना. ध्यान रहे, ये कोई चुनावी जुमला नहीं है."