नेट निरपेक्षता का पक्षधर कौन नहीं है? पर हमें नेट निरपेक्षता नहीं चाहिए, जरूरत ही नहीं है. हम यूं तो कुछ नहीं करते या विरोध करते हैं वो भी न करें तो समर्थन करते हैं. मौज तब आती है जब कभी कुछ न करने वाले राहुल गांधी भी नेट निरपेक्षता के पक्ष में संसद में आवाज बुलंद कर देते हैं. बिना ये समझे कि अंत में इसी इंटरनेट पर सबसे ज्यादा मजाक तो उनका ही बनाया जाना है.
राहुल गांधी के हिसाब से नेट निरपेक्षता का मतलब शायद ये है कि सिर्फ उनका ही नहीं सबका बराबर मजाक उड़ाया जाए. कुछ लोग सेन्स ऑफ ह्यूमर बेचकर नेट पैक डलाते हैं, जिनका सेन्स ऑफ ह्यूमर नहीं बिक पाता वो उस ह्यूमर को मजाक बनाने में इस्तेमाल करते हैं. हमें लाख 3G-4G दिला दीजिए अंत में हम लिखेंगे फेसबुक पर चुटकुले ही. नेट निरपेक्षता हटे तो सबसे पहले फेसबुक-ट्विटर पर चुटकुले लिखने वालों से उगाही शुरू कर देनी चाहिए. बड़ी कमाई होगी.
फेसबुक पर भेदभाव
फेसबुक पर भी भेदभाव चलता है. असल महिला सशक्तिकरण यहीं नजर आता है. सर्विस प्रोवाइडर्स का हक बनता है उन्हें इस भेदभाव का फायदा उठाने दिया जाए. इस मुल्क में भेदभाव के फायदों पर ही तो वर्षों से कितनों के खानदान चल रहे हैं. एक सतही आंकलन है लव पोयम्स लिखने वाली महिलाओं के इनबॉक्स पर हर मैसेज भेजने का खर्चा बढ़ा दिया जाए तो कंपनियों का मुनाफा 30 फीसदी बढ़ जाए, वहीं अगर कहीं उनकी प्रोफाइल पिक्चर पर आने वाले 'चांद की कतरन' 'मृगनयनी' सरीखे कमेंट पर खर्च बढ़ जाए तो यही मुनाफा 50 फीसदी बढ़ जाएगा.
इंटरनेट को फेसबुक-ट्विटर तक न समेटिए . यहां भीड़ ज्यादा है. सरकारी वेबसाइट्स देखिए. IRCTC का हाल देखिए. कुछ सरकारी वेबसाइट्स इतनी बुझी-बुझी दिखती हैं मानो सूतक चल रहा हो. कुछ वेबसाइट्स इतनी उदासीन नजर आती हैं मानो तीन जवान बेटियां ब्याहने का बोझ सिर पर लिए कोई बाबू बैठा हो. ऐसा नहीं कह सकते कि तमाम सरकारी वेबसाइट्स बेनूर होती हैं, लेकिन होती तो हैं.
ये यूजर को सच के करीब रखने की कोशिश होती है. कई दफा ये अंडर मेंटीनेंस नजर आती हैं. सर्वर डाउन मिलता है वो अहसास दिलाना चाहती हैं कि वो सच में सरकारी हैं. उन वेबसाइट्स को बनाया ही यूं जाता है कि गेरू-चूना पुते दफ्तरों सा अनुभव दे. बस एक बार ये नेट निरपेक्षता हटे वो दिन भी आएगा जब बिना चाय-पानी और लंचटाइम के पहले कोई सरकारी वेबसाईट न खुलेगी.