हिन्दुस्तान में तमाम राष्ट्रीय चीजें अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई रही हैं. राष्ट्रीय खेल हॉकी कोई खेलता नहीं. राष्ट्रीय पशु खतरे में है. राष्ट्रभाषा(?) राजनीति और क्षेत्रवाद की मारी है. राष्ट्रीय नदी प्रदूषित है. राष्ट्र की राजधानी असुरक्षित है. राष्ट्रीय पक्षी संरक्षित है. राष्ट्रीय ध्वज पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी के अलावा सिर्फ तब चर्चा में आता है जब कहीं उल्टा फहरा दिया जाए. राष्ट्रपिता बस जेब में अच्छे लगते हैं. राष्ट्रीय चैनल कोई देखता नहीं. इसीलिए जैसे ही भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने की मांग उठी पूजाघर से उसे उठाकर तिजोरी में जगह दे दी. अभी से बचा लूं क्या पता कल को देखने को ही न मिले! राष्ट्रीय चीजों से हमें इतना प्रेम है कि नाम के पहले राष्ट्रीय प्रसारण सेवा लग जाए यो हम रेडियो का चैनल बदल देते हैं.
हम भारतीय सम्मान लेने-देने के मामले में बड़े चंट होते हैं और सम्मान को अक्सर हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं. जिसके एहसान चुकाने होते हैं उसके काम आने के बजाय उसे इतना सम्मानित कर देते हैं कि वो भविष्य में हमसे अपेक्षा रखने की बजाय सम्मान में ही डूबता-उतराता रह जाता है. ऐसे ही जिन लोगों से हम ऊब चुके होते हैं उन्हें भी सम्मानित करके किनारे लगा देते हैं. जिस कलाकार को कोई काम न देना हो उसे रिटायर हो जाने को कहने कि बजाय लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड थमा दीजिए. उसे भी समझ आ जाएगा कि अब काम मिलने से रहा. यहां बेकदरी से ‘अब तुम्हारी जरूरत नहीं’ कहने के बजाय प्यार से परे हटाया जाता है. जिन सितारों का करियर खत्म करना हो उन्हें बिग बॉस में भेज दीजिए. जिस खिलाड़ी के खेल पर ग्रहण लगाना है, दो-चार विज्ञापन-फिल्में दिला दीजिए. जिस जज को चुप कराना हो उसे किसी कमेटी का अध्यक्ष बना दीजिए. बच्चा बहुत सवाल करे तो तुम बड़े हो गए हो कहना शुरू कर दीजिए.
सुषमा स्वराज ने जब गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने की बात की तब इसके पीछे असल वजह उनका डर था कि कहीं चेतन भगत पहले ही हाफ गर्लफ्रेंड को राष्ट्रीय पुस्तक न घोषित कर दें. कांग्रेस के इस विचार के विरोध में उतर आने से आश्चर्य नहीं हुआ. उल्टे कांग्रेस की ओर से इस बात का विरोध न हुआ होता तो जरुर आश्चर्य होता. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता से जब पूछा गया कि कांग्रेस के कुछ नेता इस बात का विरोध क्यों कर रहे हैं? तो उनका जवाब था 'अभी मुझे इस बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं लेकिन भाजपा वालों ने कुछ कहा है तो विरोध करना तो बनता है.' अंत में जाते-जाते वो कालाधन और अच्छे दिन कहां है पूछना नहीं भूले. सबसे चौंकाने वाला बयान आम आदमी पार्टी के मनीष सिसोदिया ने दिया. उन्होंने बड़ी संतुलित भाषा में सटीक बात कही कि 'गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने का कोई तुक नहीं बनता. गीता इससे कहीं बढ़कर है.'