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व्यंग्यः कब होगी इंजीनियर्स की ‘घर वापसी’?

पहले ओसामा बिन लादेन, खीर वाले बाबा रामपाल, बहत्तर हूरों के लालच में पड़ फिर जान बचाकर भागे अरीब, उत्तर प्रदेश के दो-दो उपनामों वाले हजार करोड़ी इंजीनियर यादव सिंह, और अब आईएस का ट्विटर अकाउंट चलाने वाले मेहदी मसरूर बिस्वास; इन सब में क्या समानता है?

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आईएस का ट्विटर अकाउंट चलाने वाले मेहदी मसरूर बिस्वास
आईएस का ट्विटर अकाउंट चलाने वाले मेहदी मसरूर बिस्वास

पहले ओसामा बिन लादेन, खीर वाले बाबा रामपाल, बहत्तर हूरों के लालच में पड़ फिर जान बचाकर भागे अरीब, उत्तर प्रदेश के दो-दो उपनामों वाले हजार करोड़ी इंजीनियर यादव सिंह, और अब आईएस का ट्विटर अकाउंट चलाने वाले मेहदी मसरूर बिस्वास; इन सब में क्या समानता है?

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अगर इस बात को हटा दें कि इन सबने बदनाम होकर नाम कमाया तब भी इनमें एक समानता बचती है, ये सारे या तो इंजीनियर थे या कभी किसी रूप में इंजीनियरिंग से जुड़े थे.

ओसामा पहले सिविल इंजीनियर था, रामपाल इंजीनियर की नौकरी से निकाला गया था, अरीब इंजीनियरिंग कर रहा था, यादव सिंह और मेहदी नौकरी में थे, मतलब चाहे इंजीनियर नौकरी करे, बेरोजगार हो, पढ़ाई कर रहा हो, इंजीनियरिंग छोड़ चुका हो, इंजीनियर हर हाल में खतरनाक होता है.

ऐसा नही है कि सारे इंजीनियर पथभ्रष्ट ही होते हैं, अरविंद केजरीवाल हों या चेतन भगत इन्होंने भी जब इंजीनियरिंग छोड़कर दूसरे क्षेत्र में जाना तय किया तो अलग तरीके से नाम कमाया, लेकिन आलोचना के केंद्र में हमेशा रहे, सवाल ये उठता है कि ऐसी क्या चरस बो रखी है इंजीनियरिंग की पढ़ाई में? ऐसी क्या खुन्नस रहती है दुनिया भर के लिए? किसने बना दिया है इंजीनियर्स को इतना असंतुष्ट? कब होगी इंजीनियर्स की घर वापसी? इसका जवाब वहीं से मिलेगा जहां से किसी के इंजीनियर बनने की शुरुआत होती है.

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किंडरगार्टन के भी पहले से तय कर दिया जाता है कि बच्चा इंजीनियर बनेगा, अब यहां ‘बच्चे से पूछिए वो क्या चाहता है?’ वाली घिसी-पिटी बात हटाइए; आने वाले कुछ सालों में उसे ‘इंजीनियर’ शब्द इतनी बार सुनाया जाता है कि कोई जबड़े को थोड़ा सा पीछे ले जाकर निचले होंठों को दंतपंक्ति पर चढ़ा जीभ से तालू को छू ‘इ..’ बोले इसके पहले ही बच्चा सात भान्त के इन्ट्रेंस टेस्ट, अठारह क्रैश कोर्स, देश भर के दस-पंद्रह इंस्टीट्यूट के फीस स्ट्रक्चर से लेकर इंफ्रास्ट्रक्चर तक के बारे में तीन बार दोहरा चुका होता है.

कुण्ठा तब उपजती है, जब कॉलेज पहुंचकर वर्ण व्यवस्था के बारे में पता चलता है, आईआईटी वाले सवर्ण हैं शेष सभी पामर. यकीन मानिये आईआईटी को छोड़ साधारण से किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लेने की बात भी किसी के आगे कहें तो ऐसा व्यवहार किया जाएगा जैसे ब्रह्महत्या की बात स्वीकार कर ली हो. ये अपराधबोध कहां जाएगा, ये कुण्ठा कहीं तो निकलेगी न?

चार साल की पढ़ाई में चालीस-बयालीस पेपर, दर्जनों प्रैक्टिकल्स, मेजर-माइनर प्रोजेक्ट्स, अप्रेन्टिस, सैकड़ों सेशनल और मिड टर्म देने के बाद इंसान में इमोशन के लिए जगह कहां बचती है? बसंत में जब सब मदनोत्सव मना रहे होते हैं उस वक्त पखवाड़े भर न नहाकर प्रैक्टिकल की फाइल टीपते किसी रामपाल ने दूध से नहाकर खीर भक्तों में बंटवा ही दी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? उस निरीह-निरापद-गभुआर-भटके हुए अरीब का क्या कसूर अगर उसे सेमेस्टर एक्जाम्स के डर से इंजीनियरिंग छोड़ आईएसआईएस के लिए शौचालय साफ करने में ज्यादा सुकून मिला? उत्तरप्रदेश में ‘यादव’ होना ही बहुत कुछ है इस पर भी कोई नाम के आगे ‘इंजीनियर’ और पीछे ‘सिंह’ के साथ हजार-दो हजार करोड़ और मेन्टेन कर सके तो उसे जेल भेज देना कहां तक न्यायसंगत होगा? और सबसे बुरा हुआ ‘मेहदी मसरूर बिस्वास’ के साथ जितना बड़ा उसका नाम है पूरा नाम लेते तक में सेमेस्टर खत्म हो जाए, फर्स्ट सेम में सीनियर्स ने उसे इस नाम को लेकर कितना चिढ़ाया होगा, ऐसे किसी हतभागे ने नन्हे क्यूट से ‘आईएस’ नाम का अकाउंट चला ही लिया तो क्या?

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जरूरत है इंजीनियर्स को मुख्यधारा में लाने की, उन्हें ये बताने की कि वो भी हममें से ही एक हैं, छुट्टी के दिनों में उन्हें पेड़-पौधे और सूरज दिखाने की, आईआईटी में एडमिशन नहीं मिलना किसी की हत्या करने जैसा पाप नहीं है, महीने में कम से कम दो बार उन्हें नहलाकर ये अनुभव कराने की कि पानी जब शरीर को छूता है तो कैसा लगता है?

कोडिंग,असेम्बलर,कम्पाइलर और डेड लाइन के फेर में फंसों को ये बताना जरूरी है कि वो सिर्फ प्रोग्रामर नही हैं, हिन्दू-मुसलमान की ‘घर वापसी’ कराने वाले इंजीनियर्स को कब वापिस लाएंगे? और सबसे बड़ी बात उन पर जोक्स बनना कब बंद होंगे? समय है कि हम सब वक्त रहते चेत जाएं वरना यूं ही इंजीनियर्स अपनी खीझ खीर, ट्विटर अकाउंट, आईएस के शौचालयों, करोड़ों रुपयों और हाफ गर्लफ्रेंड के रूप में निकालेंगे.

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