सब झूठे निकले. मिठाई के डिब्बे, फोन पर बात और फिर घर जाकर मुलाकात. सच्चाई ये है कि आज से गोवा में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक शुरू हो रही है और पार्टी के बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी इसमें नहीं जा रहे हैं. पार्टी कह रही है कि आडवाणी की तबीयत खराब है. मगर ये दलील या कहें कि बहाना बेहद कमजोर है. आडवाणी के अलावा जसवंत सिंह, उमा भारती और शत्रुघ्न सिन्हा भी गोवा से नदारद हैं. इन सबने बीमारी का हवाला दिया है. पार्टी चुनावी मंथन के लिए जुट रही थी, मगर उससे पहले उसे बीमारी मंथन करना होगा.
सूत्रों की मानें तो आडवाणी ने राजनाथ एंड कंपनी को साफ कर दिया है कि अगर सब कुछ मोदी के हिसाब से ही चलना है, तो उनके वहां आने का कोई मतलब ही नहीं. आडवाणी अपनी मांग न माने जाने से आहत हैं. उन्होंने जब चुनाव प्रचार समिति के मुखिया के तौर पर मोदी के नाम पर सहमति दी थी, तब एक मांग भी रखी थी. यह मांग थी कि हालिया विधानसभा चुनावों के मद्देनजर एक चुनाव प्रबंधन समिति भी बनाई जाए. आडवाणी चाहते थे कि पिछले अध्यक्ष नितिन गडकरी इसके मुखिया बनें. मकसद साफ था कि वनमैन शो का माहौल न बने. मगर पार्टी ने आडवाणी की इस मांग को बुहारकर किनारे कर दिया. उन्हें लग रहा था कि आडवाणी मोदी को कमतर दिखाने के लिए ढाल तलाश रहे हैं.
लेकिन अब आडवाणी के गोवा न जाने के ऐलान के बाद डैमेज कंट्रोल की कवायद भी शुरू हो गई है. हालांकि इसकी अपनी मुश्किलें हैं. कभी आडवाणी के करीबी रहे नेता मसलन अरुण जेटली या सुषमा स्वराज फिलहाल गोवा में हैं. राजनाथ कभी एलके के करीब नहीं रहे. 2006 में जिन्ना प्रकरण के बाद जब आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा था, तब राजनाथ उनके नहीं बल्कि संघ के आशीर्वाद से पार्टी के मुखिया बने थे.
ऐसे में आडवाणी को मनाए कौन, उन्हें गोवा लाए कौन, इसके लिए संकट मोचक अरुण जेटली से लेकर आडवाणी के प्रिय शिवराज सिंह चौहान तक को मोर्चे पर लगाया जा रहा है. आडवाणी कैंप के वैंकेया नायडू ने भी बैठक शुरू होने से पहले एक बयान देकर माहौल में मौजूद गर्मी का एहसास कराया. नायडू ने कहा कि इस तरह की मीटिंग में पीएम कैंडिडेट का ऐलान करने या चुनाव में कौन संभालेगा कमान, जैसे सवाल के जवाब नहीं दिए जा सकते. नायडू दरअसल पार्टी के उस धड़े को सुर दे रहे हैं, जो यह कह रहा है कि मोदी के नाम का ऐलान होते ही तीन दिन का यह मंथन मोदीमय हो जाएगा और रणनीति पर चर्चा मुमकिन नहीं होगी. आडवाणी की बैकिंग वाला यह गुट मांग कर रहा है कि मीटिंग खत्म होने के बाद चुनाव प्रबंधन समिति का ऐलान हो.
एक संभावना यह भी जताई जा सकती है कि वाकई आडवाणी स्वस्थ न हों. मगर यह खयाली पुलाव से ज्यादा नहीं. इसकी वजह दो दिन पहले ही मोदी आडवाणी से मिलकर आए. तब तक उनके स्वास्थ्य को लेकर कोई बात नहीं थी. सवाल ये भी है कि आडवाणी के करीबी नेताओं की तबीयत भी उन्हीं के साथ क्यों बिगड़ी. सबकी अपनी नाराजगी हैं, जिन्हें अब साझा मंच और मौका मिल गया है. मसलन, उमा भारती मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अपनी भूमिका तलाशना चाहती हैं, मगर भोपाल में शिवराज और दिल्ली में उनकी सरपरस्ती कर रही सुषमा स्वराज ने इसमें रोड़े बिछा दिए हैं. हालांकि उमा ने सुरक्षित दांव खेलते हुए पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को खत लिखा है. उसमें कहा गया है कि पिछले दौरों के चलते मेरी सेहत ठीक नहीं है. इस वजह से मैं गोवा बैठक में नहीं आ सकती. उमा ने यह भी कहा कि अगर स्वास्थ्य ठीक हो जाता है, तो वह बैठक के आखिरी दिन पहुंच जाएंगी. उधर शत्रुघ्न को लग रहा है कि बिहार बीजेपी में उनका वजूद घट रहा है. पार्टी पर सीपी ठाकुर काबिज हैं, तो सत्ता की मलाई सुशील मोदी का गुट चाट रहा है. उनके हिस्से कुछ नहीं आ रहा.जसवंत सिंह तो वापसी के बाद से ही संगठन में अपनी भूमिका नहीं समझ पा रहे हैं.
फिर से लौटते हैं पार्टी के भीष्म पितामह आडवाणी की ओर. 1957 में वह संघ का काम छोड़कर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के कहने पर दिल्ली आए. मकसद था बीजेपी की पूर्वज जनसंघ का काम संभालना. रिहाइश हुई अटल बिहारी वाजपेयी को बतौर सांसद मिले आवास में. उसके बाद से आडवाणी ने पहले जनसंघ और फिर बीजेपी की कोई भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक या अधिवेशन मिस नहीं किया. पार्टी के इतिहास पर नजर रखने वालों का कहना है कि यह पहली बार हो रहा है, जब लोकसभा चुनावों के पहले हो रही इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण बैठक में आडवाणी नहीं रहेंगे.
पार्टी का युवा और उत्साही तबका कह रहा है कि अच्छा ही है कि आडवाणी गोवा नहीं जा रहे. वहां जाते और कुछ की कुछ टिप्पणी कर देते, तो रंग में भंग पड़ जाता. मगर एक धड़ा ऐसा भी है जो मानता है कि आडवाणी की मौजूदगी के बिना मोदी की ताजपोशी अधूरी मानी जाएगी. उधर संघ परिवार भी पूरे घटनाक्रम पर करीबी नजर रखे हुए हैं.सूत्रों के मुताबिक अगर कलह नहीं निपटी, तो आखिरी में संघ की मेज पर ही मध्यस्थता और मेल मिलाप का भाष्य लिखा जाएगा.
इतना तो तय है कि मंथन के आखिरी में सत्ता का अमृत पाने की सलाहियत मिले न मिले, कलह का विष मिलना शुरू हो गया है.