दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने आखिरकार केरल के राज्यपाल पद से इस्तीफा दे दिया. उन्हें इस बात का आभास था कि पहले तो उनका मिज़ोरम तबादला किया जाएगा और फिर उन्हें बर्खास्त किया जाएगा. इसके पहले महाराष्ट्र के राज्यपाल के शंकरानारायणन ने भी इस्तीफा दिया था और दुख जताया था कि उनका तबादला किया जा रहा है. लेकिन शीला दीक्षित ने चुपचाप दिल्ली आकर अपना इस्तीफा सौंप दिया.
उन्होंने इस बार किसी तरह का विवाद नहीं किया और बीजेपी सरकार की बात मान ली. शीला दीक्षित राजनीति की चतुर खिलाड़ी हैं और अच्छी तरह जानती हैं कि किस वक्त कौन सा कदम उठाना चाहिए और कौन सा नहीं. जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार थी तो उन्हें आनन-फानन में केरल का राज्यपाल बना दिया गया था.
इसके दो फायदे हुए. पहला तो यह कि वह दिल्ली के शोर शराबे से दूर चली गईं और दूसरा यह कि उन्हें लीगल इम्यूनिटी मिल गई. यानी राज्यपाल होने के नाते उन पर कोई मुकदमा नहीं चल सकता था. यह उनके लिए जरूरी था क्योंकि विपक्ष उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के जबर्दस्त आरोप लगा रहा था और आम आदमी पार्टी के चीफ अरविंद केजरीवाल ने उन्हें जेल में भेजने का जनता से वादा किया था.
सही वक्त पर सही फैसला करके शीला दीक्षित दिल्ली से केरल चली गईं. और अब वह ठीक उसी तरह से इस्तीफा दे आईं. ज़ाहिर है उन्होंने अपने लिए कुछ न कुछ सोच रखा होगा. वह सोनिया गांधी के करीबी लोगों में रही हैं और कांग्रेस में उनका विरोध करने वाले भी उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटवा नहीं पाए थे, जबकि उनका रिपोर्ट कार्ड बेहद निराशाजनक था.
उस समय उनकी पार्टी के लोग ही उनकी खिलाफत कर रहे थे और आलाकमान से उन्हें पदमुक्त करने को कह रहे थे. लेकिन शीला दीक्षित की जनपथ में पकड़ बहुत मजबूत थी. यह जानते हुए भी कि पार्टी की विधानसभा चुनाव में बुरी गत होगी, पार्टी ने उन्हें मौका दिया. उसके बाद उन्हें कानूनी झमेलों से बचाने के लिए राज्यपाल बना दिया गया. लेकिन अब मिज़ोरम जाने की आशंका से उन्होंने इस्तीफा सौंप दिया.
लेकिन यह तय है कि शीला दीक्षित ने यह पहले से सोच रखा होगा कि आगे उन्हें किस तरह की राजनीति करनी है या कौन सा पद संभालना है. वैसे भी दिल्ली में कांग्रेस पार्टी किसी तरह की चमक दिखाने में कामयाब नहीं हो पा रही है. पार्टी में न तो कोई उत्साह दिखता है और न ही कोई रणनीति. कभी-कभार नेतागण अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए दिल्ली की सड़कों पर उतर आते हैं या किसी तरह का कोई बयान दे डालते हैं. लेकिन उनके पास कोई ऐसा नेता नहीं है जो पार्टी को मजबूती प्रदान कर सके.
जाहिर है कि उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होने जा रही है. जो लोग उन्हें जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि शीला दीक्षित चुप बैठने वाली नहीं हैं. पार्टी को उनकी जरूरत है और वे अपनी उपस्थिति आसानी से दर्ज करा सकती हैं.