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श्यामा प्रसाद मुखर्जी पुण्यतिथि: जवाहर लाल नेहरू से हमेशा रहा मतभेद

जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी. भाजपा इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाती है. देश के प्रथम प्रधानमंत्री रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वैचारिक मतभेद के बाद भी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपनी अंतरिम सरकार में मंत्री बनाया था, लेकिन बाद उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा देकर जनसंघ की नींव रखी थी और नेहरू के साथ हमेशा मतभेद रहा.

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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को श्रद्धांजलि देते पीएम मोदी
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को श्रद्धांजलि देते पीएम मोदी

भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज पुण्यतिथि है. 23 जून 1953 को उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी. भाजपा इस दिन को 'बलिदान दिवस' के रूप में मनाती है. वैचारिक मतभेद के बाद भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपनी अंतरिम सरकार में मंत्री बनाया था. हालांकि उन्होंने नेहरू पर तुष्टिकरण का आरोप लगाते हुए मंत्री पद से इस्तीफा देकर जनसंघ पार्टी की स्थापना की थी.

बता दें कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म छह जुलाई 1901 को कलकत्ता के एक संभ्रांत परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम आशुतोष मुखर्जी था. उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद 1927 में बैरिस्टरी की परीक्षा पास की. भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत 1937 में संपन्न हुए प्रांतीय चुनावों में बंगाल में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था. इसी चुनाव से ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राजनीति में प्रवेश किया था, लेकिन चुनाव जीत नहीं सके. हालांकि, साल 1944 में डॉ. मुखर्जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष बनकर अपनी सियासी पहचान बनाई.

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वरिष्ठ पत्रकार पियूष बबेले ने अपनी पुस्तक 'नेहरू: मिथक और सत्य' में पंडित जवाहर नेहरू और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच मतभेदों को बेहतर तरीके से लिखा है.पंडित जवाहर नेहरू और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच मतभेदों को लेकर 'नेहरू: मिथक और सत्य' पुस्तक के लेखक व वरिष्ठ पत्रकार पीयूष बबेले कहते हैं कि दोनों नेताओं अलग-अलग पार्टी में थो और अलग-अलग विचाराधारा थी. आजादी के आंदोलन में शुरुआती में तो थोड़ा बहुत श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भाग लिया, लेकिन 1942 में 'भारत छोड़ों के आंदोलन' में वो तो अंग्रेजों के लिए काम कर रहे थे. इस तरह से वो एंटी इंडिया मुवमेंट में लगे रहे. उस जमाने में नेहरू के सामने श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं थी, इसीलिए मतभेद की बात आती नहीं है, क्योंकि मतभेद दो बराबरी लोंगों के बीच होता है.

पीयूष बबेले कहते हैं कि भारत आजाद हो गया उसके बाद हिंदू कोड बिल आया तो श्यामा प्रसाद मुखर्ज ने जवाहर लाल नेहरू का विरोध किया. इस बिल पर अंबेडकर और नेहरू एक तरफ थे तो दूसरी तरफ श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे. इसके बाद जवाहर लाल नेहरू जब जमींदारी उन्मूलन को लेकर पहला संविधान संसोधन बिल लाए तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका जमकर विरोध किया. इस पर नेहरू ने मुखर्जी से कहा था कि देश की जनता जमींदारी खत्म करने से लिए लंबे समय से इंतेजार कर रही है, यहां (संसद) में आप विरोध कर रहे हैं. ऐसे में संसद में तो हम बचा लेंगे, लेकिन यही बात जनता के बीच में जाकर कहिएगा तो वहां पर आपको कोई बचा नहीं पाएगा.

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पियूष बबेले ने अपनी पुस्तक 'नेहरू: मिथक और सत्य' में महात्मा गांधी की हत्या के बाद जवाहर लाल नेहरू और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच पत्राचार के जरिए हुई बताया है कि किस प्रकार के मतभेद दोनों नेताओं के बीच में थे. नेहरू अब सांप्रदायिक संगठनों से आर-पार की लड़ाई के मूड में थे. गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद उनके साथ डटकर खड़ेथे, हर मामले में न सही तो कम से कम गांधी की हत्या के गुनहगार संगठनों पर लगाम कसनने के लिए. 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर देशव्यापी प्रतिबंध लगा दिया गया. इसी दिन नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को पत्र लिखा थाा, जो इस प्रकार है.

मेरे प्रिय डॉक्टर मुखर्जी,

आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले मैंने आपको हिंदू महासभा या उसके नेताओं की उन हरकतों के बारे में लिखा था जो आपके और मेरे लिए समान रूप से शर्मनाक हैं. उस समय आप कोलकाता जा रहे थे और आपने मुझसे कहा था कि इस मामले में आप भी चिंतित हैं और लौटने के बाद आप इस बारे में बात करेंगे. उसके बाद से महान त्रासदी घटित हो चुकी है और हालात भयानक रूप से बिगड़ गए हैं. लोगों के दिमाग में हिंदू महासभा इस त्रासदी के साथ चस्पा हो गई है. आप जानते ही हैं कि इसे लेकर देश में बड़ी उत्तेजना है.

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हिंदू महासभा के बारे में आप का रुख कुछ भी हो, लेकिन मैंने अपने पिछले पत्र में जो सवाल उठाए थे, वह अब भी हमारे सामने मौजूद हैं और पहले से ज्यादा गंभीर हो गए हैं. मेरी पार्टी की ओर से संविधान सभा में मुझसे सवाल पूछे जा रहे हैं और वे जवाब देने के लिए जोर डाल रहे हैं. इस बात की पूरी संभावना है कि वे लोग आज दोपहर पार्टी की बैठक में भी यह सवाल उठाएं.

मैं इस बारे में आश्वस्त हूं की राजनीति में सांप्रदायिक संगठनों के दिन अब लद गए हैं और हमें उन्हें किसी भी रूप में प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए. खासकर, केंद्र सरकार में शामिल किसी मंत्री के लिए हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठन से निजी तौर पर संबद्ध होना, बहुत ही शर्मनाक है. यहां तक कि राजनीतिक धरातल पर भी यह हमारी सामान्य नीति और पूरी की पूरी सरकार के खिलाफ हैं.

आपने जरूर इन बातों पर गौर किया होगा. मेरे लिए आपको यह सलाह देना थोड़ा कठिन है, फिर भी मैं सलाह दे रहा हूं कि अब समय आ गया है कि जब आप सांप्रदायिक संगठनों, जिसमें हिंदू महासभा भी शामिल है, के खिलाफ आवाज़ उठाएं. और किसी भी सूरत में हिंदू महासभा के साथ अपना रिश्ता खत्म कर दें. आपका इस तरह का कोई भी फैसला पार्टी में और मैं समझता हूं कि पूरे देश में बहुत सराहा जाएगा.’’

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मुखर्जी को बहुत विनम्र, लेकिन साफ शब्दों में हिंदू महासभा से अलग होने का नैतिक निर्देश देने के बाद नेहरू पटेल की तरफ मुड़े. और उनका ध्यान एक बार फिर लाल बहादुर शास्त्री से मिली उस सूचना की तरफ दिलाया जो गांधी जी की हत्या से पहले ही दी गई थी. 5 फरवरी 1948 को नेहरू ने पटेल को पत्र लिखा: (सरदार पटेल चुना हुआ पत्र व्यवहार).

इसके बाद नेहरू ने सरदार पटेल को भी पत्र लिखा, जिसके जवाब में पटेल ने नेहरू से कहा था कि स्पष्ट चेतावनी के बावजूद मुखर्जी ने बात को तकनीकी पहलुओं के जरिये खारिज करने की कोशिश की. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 16 जून 1948 को पटेल को लिखा. मेरे ख्याल से हिंदू महासभा की स्थिति के बारे में कुछ गलतफहमी हुई है. हिंदू महासभा ने कोई बचाओ कमेटी नियुक्त नहीं की है. अखिल भारत बचाओ कमेटी पूरी तरह एक स्वतंत्र संस्था है. अखिल भारत हिंदू महासभा इस तरह का कोई चंदा इकट्ठा नहीं कर रही है.

हालांकि, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू के उस स्पष्ट आग्रह को ध्यान में रखते हुए इस्तीफा दिया था, जिसमें मई में नेहरू ने उनसे ऐसा करने के लिए कहा था. इस बीच पटेल के कड़े रुख ने मुखर्जी को इस फैसले में पहुंचने में जरूर मदद की होगी. नेहरू के असर को इस बात से समझा जा सकता है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 23 नंवबर 1948 को हिंदू महासभा से इस्तीफा दिया, लेकिन इसकी सूचना 19 नवंबर को ही नेहरू को दे दी.

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मुखर्जी ने नेहरू से कहा कि हिंदू महासभा का अपनी राजनीतिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने का फैसला उन सिद्धांतों के खिलाफ है, जो उन्होंने महासभा से स्वीकार करने के लिए कहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर भारत को महान और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरना है तो सांप्रदायिक भेदभाव और इससे जुड़े आवेग और पूर्वाग्रहों को खत्म करना होगा. हालांकि, बाद में उन्होंने हिंदू महासभा के नेताओं के साथ मिलकर भारतीय जनसंघ की स्थापना की.

बता दें कि भारत के पहले प्रधानमंत्री रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू की डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से कई मतभेद रहे थे. देश की आजादी के बाद 1947 में जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने तो स्वयं महात्मा गांधी और सरदार पटेल ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को तत्कालीन मंत्रिपरिषद में शामिल करने की सिफारिश की थी. पंडित नेहरू ने डॉ. मुखर्जी को मंत्रिमंडल में शामिल किया और उन्हें उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी थी. यह मतभेद तब और बढ़ गए जब नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच समझौता हुआ. इसके समझौते के बाद छह अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-संघचालक गुरु गोलवलकर से परामर्श लेकर मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को राष्ट्रीय जनसंघ की स्थापना की थी. इसके बाद 1951-52 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनसंघ के तीन सांसद चुने गए जिनमें एक डॉ. मुखर्जी भी शामिल थे. बेशक उन्हें विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं था लेकिन वे सदन में पंडित नेहरू की नीतियों पर तीखा प्रहार करते थे.

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