‘लेट्स ऑल हैव सेक्स’. ‘लेट्स ऑल हैव सेक्स ऑल डे.’
खुद को संभालिए. थोड़ी देर के लिए. जब तक हम उस साहित्य की बात करेंगे जिससे हम वंचित रहते हैं. इस गुस्ताखी के लिए मैं तहे दिल से माफी चाहता हूं- खासकर उनसे जिन्हें इससे चोट पहुंची हो. मुझे ये सस्ती ट्रिक इसलिए अपनानी पड़ी, क्योंकि मैं चाहता था कि जो भी इस तरह की घटिया मानसिकता वाले (हम में से ज्यादातर हैं) वे इसे जरूर पढ़ें.
हम खामोश क्यों हैं?
दो दिन पहले ही मुझे ‘वन पार्ट वूमन’ (तमिल में मूल किताब- 'मधोरुबगन') मिली. इस किताब को मैंने उसी दिन ऑनलाइन ऑर्डर किया, जिस दिन पेरुमल मुरुगन ने अपनी सारी किताबें वापस लेते हुए अपनी कलम और जिंदगी दोनों को एक साथ अलविदा कह दिया. इसमें मैं उस खास जगह की मिट्टी की सुगंध को सूंघ पाता हूं जिसका वर्णन उस भाषा में है जो मुझे ठीक से समझ में आती है– अंग्रेजी.
ये कृति वो तस्वीरें उकेरती है जिनसे मैं खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता हूं. मैं उस पौधे को देख पाता हूं, जिसे एक शख्स अपने ससुर के बंजर पड़े अहाते में रोपता है.
मेरा सवाल उनसे है जिन्होंने अपनी साहित्यिक समझ को दरकिनार कर दिया है. आखिर हम क्यों जाहिलों को इसकी इजाजत देते हैं. यही हमारा ‘मैं हूं पेरुमल’ पल है. ‘वन पार्ट वूमन’ पर यही हमारा दृष्टांत है- लेकिन हम चुप रहते हैं. खून का एक कतरा भी नहीं बहा लेकिन आत्मा मर गई. बंदूकों की आवाज तो नहीं सुनाई दी पर कलम शांत हो गई.
पेरुमल के पेड़ की काट-छांट क्यों?
ये तो उनकी घोर संकीर्ण मानसिकता ही है, जिनका ढुलमुल सम्मान इस बात पर निर्भर होता है कि आखिर फिक्शन लिखा कैसे गया है? उसमें बुद्धिजीवी उर्वरता का अभाव होता है और उसी के परिणामस्वरूप पेरुमल के पेड़ की काट-छांट होती है. पत्र तो लाखों के पास हैं पर उनका मस्तिष्क पहल नहीं कर रहा. उनके होने का अर्थ विकसित ही नहीं हो सका है. उनकी आंतरिक नजर खुल ही नहीं पाई है. वे अब भी इधर-उधर खाक छान रहे हैं.
‘सुशिक्षा’ या ‘अशिक्षा’ नहीं, बल्कि हम तो ‘कुशिक्षा’ के प्रकोप से जूझ रहे हैं.
ये फिक्शन है, फैक्ट तो नहीं
उपन्यासकार ऐसा प्लॉट गढ़ता है, जिससे वह खुद गहराई तक जुड़ा हुआ होता है. वह उन लोगों और उनकी संस्कृति से वाकिफ होता है. और इस पेरुमल ने तो उन लोगों पर न तो कोई रिपोर्ट लिखी है, न ही उनका आधिकारिक इतिहास. उन्होंने तो महज अपनी कल्पना को कलम से कागज पर उकेर भर दिया है.
फिक्शन में टकराव की गुंजाइश होती है और लेखक को इस बात की आजादी होती है कि वह अपने चरित्रों को जिस रंग-रूप में चाहे गढ़ सके. अगर कोई पाठक सभी पाठकों से असहमत होता है तो वह उसे न पढ़े. अगर कोई पाठक ये जाने बगैर किताब पढ़ना बंद कर देता है कि उसकी उससे असहमति हो सकती है. फिर लेखक पर जहर उड़ेलने की जरूरत क्यों पड़ती है?
वह तबका चाहे तो उस लेखक की दूसरी किताबे न पढ़ने का फैसला कर सकता है – कम से कम उचित तरीका तो यही है. फिर तो कोई लेखक समाज की उन बुराइयों पर कलम चलाने से भी परहेज करने लगेगा जो उन्हें खोखला बनाती हैं.
‘मैं हूं पेरुमल’!
आदर्शवादी उपन्यासकार और उनके धुर विरोधी हमेशा से रहे हैं. चिंता की बात ये है कि सिस्टम इन मूर्ख और गंवारों पर लगाम कसने के लिए कुछ नहीं करता.
दुख की बात ये है कि हम ‘मैं हूं पेरुमल’ वाले टी-शर्ट पहनने का साहस नहीं जुटा पाते. सबसे खतरनाक बात तो ये है कि एक ऐसा माहौल बनने लगा है जिसमें उजड्डों को पांव पसारने का मौका मिलता है – और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले होते हैं.
पेरुमल मुरुगन मर गया – हजारों साल जियो पेरुमल मुरुगन.
अब अगर किसी का कल्चर आहत नहीं होता तो जाओ और सेक्स करो. चलो सभी संभोग करते हैं. चलो सभी हर वक्त संभोग करते हैं. और खरगोशों की तरह जुट जाते हैं – क्योंकि हमारा दिमाग संकुचित होने की राह पर बढ़ रहा है.