सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष पद संभाले सोमवार को एक साल पूरा हो गया. ‘द ग्रैंड ओल्ड पार्टी को अब भी भविष्य की अनिश्चितता से जूझना पड़ रहा है. लगातार दो लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त से कोई भी उम्मीद रखेगा कि कांग्रेस ने अपनी गलतियों को समझ कर उन्हें दूर करने के लिए उपचारात्मक कदम उठाए होंगे, लेकिन ये पार्टी अब भी एकजुट नहीं बल्कि बंटा हुआ घर लगती है. कांग्रेस नेता 2024 की चुनौती (लोकसभा चुनाव) को लेकर आगे देखने की जगह अतीत को लेकर झगड़ रहे हैं. यही हालत रही तो देश की सबसे पुरानी पार्टी हमेशा के लिए गर्त में पहुंच सकती है.
सच तो ये है कि कांग्रेस के ताज को दोबारा पहनने के लिए राहुल गांधी तैयार नहीं है और सोनिया गांधी की नासाज तबीयत ने कांग्रेस अध्यक्ष के पद को खुली चुनौती बना दिया? आखिर कौन कांटो भरा ये सिंहासन थामने की चुनौती स्वीकार करेगा ?
पिछले साल कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) का ऐतिहासिक नजारा याद कीजिए जहां राहुल गांधी ने साफ किया था कि वो अध्यक्ष पद पर नहीं बने रहना चाहते और सोनिया गांधी को ज्योतिरादित्य सिंधिया, ‘10, जनपथ’ पर एस्कॉर्ट करते हुए लाए थे. सोनिया गांधी को सिंधिया मनाने में सफल रहे थे कि उनके अलावा और कोई भी स्थिति को नहीं संभाल सकता. विडंबना देखिए कि अब वही सिंधिया एक साल बाद विरोधी बीजेपी कैम्प की शोभा बढ़ा रहे हैं.
कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है, “प्रकृति की तरह राजनीतिक दल भी वैक्यूम (निर्वात) में काम नहीं कर सकते. ये सही है कि कार्यकाल (सोनिया गांधी का अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर) 10 अगस्त को खत्म हो रहा है. हमारी पार्टी के संविधान में चुनाव के लिए निर्धारित प्रक्रिया है. जैसा कि आप जानते हैं कि ये सीडबल्यूसी के माध्यम से होता है...तब तक सोनिया गांधी अध्यक्ष बनी रहेंगी.”
कांग्रेस में फुसफुसाहट
कांग्रेस में फुसफुसाहट के मुताबिक पार्टी के पुराने और नए नेताओं की गुपचुप तौर पर ग्रुप्स में बैठकें हो रही हैं. मौजूदा स्थिति से कई चौकन्ने हैं और कई खुद के राजनीतिक वजूद को बचाने के लिए उम्मीद लगाए बैठे हैं. कांग्रेस में हाल में हुई नियुक्तियों ने स्पष्ट कर दिया था कि पार्टी में सोनिया गांधी अब भी बॉस हैं और कमान उन्हीं के हाथों में हैं. कई के मुताबिक ये स्थिति निर्वात की निरंतरता की ओर इशारा करती है.
एक बात तय है कि राहुल गांधी पार्टी का मन बदलने की संभावना कम है और उनकी अध्यक्ष के रूप में वापसी नामुमकिन नहीं तो मुश्किल बहुत है. लेकिन वर्तमान स्थिति से एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ‘12 तुगलक लेन’ का अभी भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी मनवाने पर जोर है और इस स्थिति को वो कमजोर नहीं पड़ने देना चाहता.
इस त्रिकोणीय रस्साकशी का तीसरा कोना गांधी परिवार की अन्य सदस्य यानी प्रियंका गांधी वाड्रा हैं. नाम न खोलने की शर्त पर एक पार्टी इनसाइडर ने कहा, “गांधी सार्वजनिक तौर पर एकसुर में बोलते दिखते हैं लेकिन उनके कामकाज का तरीका जुदा है और कई बार ये आपस में मेल नहीं खाता...ऐसे में प्रियंका के पूर्व लोधी एस्टेट कार्यालय समेत पार्टी में तीन पॉवर सेंटर हैं...पावर प्ले गति में होता है तो दफ्तर सामंजस्य में चलते हैं और अक्सर एक दूसरे के समानांतर होते हैं.”
कांग्रेस नेताओं की ओर से लेखों और ट्वीट्स की अचानक हालिया मुखरता का उद्देश्य आम लोगों तक अपनी बात को पहुंचाना कम और पार्टी हाईकमान तक संदेश पहुंचाना अधिक लगता है. वो त्रिकोणीय संघर्ष में अपनी स्थिति को भी व्यक्त करना चाहते हैं.
Well said, Manish.
When demitting office in 2014, Dr Manmohan Singh said, “history will be kinder to me”.
AdvertisementCould he have ever imagined that some from his own party would dismiss his years of service to the nation & seek to destroy his legacy - that, too, in his presence? https://t.co/HQyihXkFvk
— Milind Deora मिलिंद देवरा (@milinddeora) August 1, 2020
फ्लैशबैक: भारतीय राजनीति कोई दंतकथा नहीं
बहुत अर्सा नहीं हुआ जब गांधी परिवार के चिराग को भारत के भावी राजा के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता था. कहा जाता था कि यही वो शख्स है जो कांग्रेस को दोबारा मजबूत बना सकता है, कांग्रेस साम्राज्य की खोई जमीन को लौटा सकता है...लेकिन भारतीय राजनीति कोई दंतकथा नहीं है...वर्षों बाद कांग्रेस सिंहासन की सर्वोच्चता अर्श से फर्श पर है.
लगभग डेढ दशक पहले कांग्रेस किंगडम के राजकुमार राहुल गांधी अपने चुने हुए खास सहयोगियों के साथ हिन्दी हार्टलैंड में राजनीतिक लाभ की तलाश में जोरशोर के साथ निकले. उनकी पदयात्राओं और प्रदर्शनों की एक्सक्लूसिव तस्वीरों के लिए बड़ी संख्या मे कैमरों ने पीछा किया. वहीं कांग्रेस किंगडम की क्वीन के सिपहसालार दुर्ग को संभालने में जुटे. सब कुछ स्क्रिप्ट के हिसाब से चला लेकिन एंटी-क्लाइमेक्स 2014 लोकसभा चुनाव में देखने को मिला. उसके बाद से जो हुआ वो कहानी जगजाहिर है, लेकिन आइए मौजूदा स्थिति की ओर लौटते हैं.
दिग्गजों की जमात और मुश्किलों का पिटारा
कुछ हफ्ते पहले पार्टी के ओल्ड गार्ड्स की बैठक में परेशानियों का पिटारा खोला. सोनिया गांधी विशेष तौर पर इस बात से नाराज दिखीं कि किस तरह पार्टी के नेताओं की आपसी जुबानी जंग से छीछालेदर हुई और पार्टी के रैंक और फाइल के बीच असंतोष और अविश्वास का संदेश बाहर गया. पार्टी के दिग्गजों और युवा लोगों के बीच युद्ध की रेखाएं खिंची हुई लगती हैं, लेकिन जो नजर आता है, सच उसकी हद से बाहर है. ‘पुराने बनाम नए’ के जिस द्वंद्व की ब्रैंडिंग हो रही है, वो शायद एक भ्रम का पर्दा है, जो कहीं बड़े संकट को छुपाने की कोशिश कर रहा है.
राहुल गांधी एक समय में ऐसे शख्सों से घिरे रहते थे जिनके प्रभावशाली उपनाम और टाइटल थे. राजनीति में विशिष्ट बैकग्राउंड और आकर्षक व्यक्तित्व को असरदार कॉकटेल माना जाता रहा है. राहुल के अगल बगल उम्मीद का ऐसा जाल बुना गया जो भविष्य के लिए उम्मीद जगाता लगता था. पार्टी के युवा तुर्कों को मंत्री पदों से नवाजा गया. सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं को ऐसी स्थिति में फलने फूलने का मौका मिला. राहुल गांधी से निकटता ने ऐसे युवा तुर्कों के कद को ‘लार्जर दैन लाइफ’ बना दिया.
दिलचस्प है कि कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने एक लेख में उन्हें 'विशेषाधिकार के राजकुमार’ कहा, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए पार्टी छोड़ दी. लेकिन गौर करने लायक ये भी है कि तिवारी ने ‘क्राउन प्रिंस’ को बहस से बाहर रखा. इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी राजनीति में कदम रखने के एक दशक के भीतर वंशवादी पार्टी को चलाने लगे, अपने से दशकों वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं का भविष्य तय करने लगे, सिर्फ अपने उपनाम की वजह से.
वो लीडर ही क्या, जिसका अनुसरण करने वाला कोई नहीं है? राहुल को एक ऐसी टीम की जरूरत थी जो उनके लिए खुद को झुका सकें, ऐसे में यस-मैन नेता पटल पर आए. यह टीम राहुल की दूसरी खेप थी. ये सब नेता मामूली पृष्ठभूमि से चुने गए, जो अभी भी ट्रेड के सीक्रेट सीख रहे हैं. जैसे कि मीनाक्षी नटराजन, अशोक तंवर, राजीव सातव, माणिक टैगोर और दायां हाथ के राजू. ये ऐसे स्टार नेता थे, जिन्होंने अपने राजकुमार को किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा, जो कभी गलती नहीं कर सकता, वे ये कर्ज कभी नहीं भूलेंगे.
फिर वहां क्वीन्स गार्ड्स मौजूद हैं. बुद्धि और प्रतिभा के सहारे सामने आने वाली पहेलियों को सुलझा कर विपक्षियों के तिलिस्म को तोड़ने के लिए इनमें से कुछ ने कठिन लड़ाई लड़ी भी. इस से भी अहम, उन्होंने कांग्रेस क्राउन के प्रति निष्ठा की कसम खाई. साथ ही कहा इसके लिए कुछ भी करेंगे.
UPA कैबिनेट में जो मंत्री थे, अपने विषयों में पारंगत, वर्षों के उनके प्रत्येक विषय के एक मास्टर… इतने वर्षों में वे अधिक अभिमानी और दृढ़ भी हुए.
आगे का रास्ता क्या?
तो क्या होगा अगर राहुल अपने स्टैंड से झुकने से मना कर देते हैं. यह लगभग साफ है कि प्रियंका सिंहासन नहीं संभाल सकती हैं और न ही वो ये पदभार संभालेंगी, क्योंकि यह पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ाने में राहुल की विफलता का संकेत होगा. पार्टी एक उपाध्यक्ष के विकल्प पर विचार कर रही है जो दैनिक कार्यों को संचालित करने में मदद करें, जबकि रिमोट कंट्रोल 10 जनपथ के हाथों में ही रहे. एक बैठक में हाल ही में पार्टी के नेता चार अलग-अलग क्षेत्रों- उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के कार्यकारी अध्यक्षों को नियुक्त करने पर विचार कर रहे थे. वे सभी कांग्रेस अध्यक्ष को रिपोर्ट करेंगे और फिर से बागडोर गांधी के साथ होगी.
पार्टी के आलोचकों को लगता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट से जुड़े हालिया प्रकरणों के बाद कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए कम प्रतिस्पर्धा है. यह एक विडंबना है पिछले साल पार्टी अध्यक्ष के लिए सीडब्ल्यूसी में इन्हीं दो नेताओं के नामों को उछाला गया था. हालांकि, पार्टी नेतृत्व अशांत मौसम को नजरअंदाज नहीं कर सकता है. क्या होगा यदि 2024 में सियासी बवंडर पार्टी से टकरा कर उसे धूल में उड़ा दे.