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राहुल गांधी के राज में बिखरे विपक्ष को कितना साध पाएंगी सोनिया गांधी?

राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद सोनिया गांधी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनीं हैं. ऐसे वक्त में उन्होंने दोबारा पार्टी की कमान संभाली है, जब कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही है.

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सोनिया और राहुल गांधी.(फाइल फोटो-IANS)
सोनिया और राहुल गांधी.(फाइल फोटो-IANS)

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कांग्रेस अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफा देने के बाद सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनीं हैं. पार्टी की कमान ऐसे दौर में उनके हाथ फिर से आई है जब कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही है. यह संयोग है कि जब 1998 में पहली बार पार्टी नेताओं के अनुरोध और दबाव में वह अध्यक्ष बनीं थीं तब भी कांग्रेस की स्थिति खराब थी. उस वक्त पार्टी के पास सिर्फ 141 लोकसभा सदस्य थे. अब जब दूसरी बार पार्टी में जारी संकट के समय उनके हाथ कमान आई है तो सिर्फ 52 लोकसभा सदस्य हैं. सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी के खाते में केंद्र की सत्ता में कांग्रेस को दो बार पहुंचाने का श्रेय जाता है.

सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी बीजेपी के मुकाबले बिखरे विपक्ष को एकजुट कर सकेंगी. या फिर राहुल गांधी के 20 महीने के कार्यकाल में समन्वय की कमी से कमजोर होते यूपीए को फिर से मजबूत करने में सफल होंगी. सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं कि 2014 में 44 के मुकाबले भले ही राहुल गांधी ने पार्टी को 2019 में 52 सीटें दिलाईं, मगर वो न विपक्ष को एकजुट रख सके और न ही यूपीए के सहयोगी दलों के बीच उचित समन्वय कर उसे मजबूती दे सके. यही वजह रही कि 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्यादातर प्रभावी क्षेत्रीय दल कांग्रेस से अलग अपनी ढपली अपना राग अलापते दिखे.

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'विपक्ष के पास नए विचारों का औजार होना चाहिए'

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं कि आज हिंदुत्व और कारपोरेट के गठबंधन की बुनियाद पर खड़ी बीजेपी का विपक्ष तभी मुकाबला कर सकता है, जब उसके पास नए विचारों का औजार हो. जब तक विपक्ष नए विचारों को धरातल पर लागू करने की नई शैली नहीं अपनाएगा, तब तक मौजूदा हिंदुत्व-कारपोरेट गठबंधन की नींव पर खड़ी बीजेपी और केंद्र सरकार को चुनौती नहीं दी जा सकती.

क्या राहुल गांधी के मुकाबले, सोनिया गांधी कांग्रेस के झंडे तले विपक्ष को एकजुट कर सकतीं हैं? इस सवाल पर उर्मिलेश का कहना है कि सोनिया गांधी व्यावहारिक ज्यादा हैं, आइडियोलॉजिकल कम. जबकि राहुल गांधी आइडियोलॉजिकल ज्यादा हैं और व्यावहारिक कम. हो सकता है यूपीए या विपक्ष को मजबूत करने में सोनिया का व्यावहारिक पक्ष काम आए. मगर अध्यक्ष के तौर पर सोनिया और राहुल की तुलना तर्कसंगत नहीं है.

राहुल गांधी कांग्रेस को इन्क्लूसिव (समावेशी) पार्टी बनाना चाहते थे, उन्होंने संगठनात्मक स्तर पर इसकी शुरुआत करने की कोशिश की. नए दौर की नई पार्टी बनाने की दिशा में काम शुरू किया था. यह दीगर है कि वह यह नहीं कर पाए. जहां तक सोनिया की बात है तो आज के और 2004 के हालात अलग थे. तब सत्ता में वाजपेयी की अपने दम वाली बीजेपी सरकार नहीं थी. गठबंधन सरकार के कुछ फैसलों से जनता में निराशा थी, तब आज की तुलना में आरएसएस का उतना ठोस और आक्रामक अभियान नहीं था. हिंदुत्व और कारपोरेट का गठबंधन नहीं था.

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वहीं दलित, ओबीसी की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों के नेताओं की छवियां पहले इतनी खराब नहीं थीं. इन सब समीकरणों ने तब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) बनने की राह आसान कर दी. जिससे बीजेपी विरोधी गठबंधन बनाने में सोनिया गांधी को कामयाबी मिली. जबकि राहुल गांधी के समय बीजेपी प्रचंड बहुमत से सत्ता में रही.

2014 से 2019 में कहां पहुंचा यूपीए

2014 का लोकसभा चुनाव जब हुआ था, तब सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थी. उस दौरान कांग्रेस को सिर्फ 44 सीटें मिलीं थीं, वहीं यूपीए सिर्फ 60 सीटों तक पहुंच सकी थी. जबकि 2019 का लोकसभा चुनाव के वक्त राहुल गांधी अध्यक्ष रहे. इस दौरान कांग्रेस को 52 सीटें मिलीं, वहीं यूपीए की सीटें बढ़कर 91 हो गईं. राहुल गांधी के दौर में कांग्रेस मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बनाने में सफल रही.

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