पीके बोले तो प्रशांत किशोर. हाल के सालों में हिंदुस्तान की सियासत का बड़ा रणनीतिकार. पर्दे के पीछे से रणनीति बनाने वाला चेहरा. जिसे वर्तमान भारतीय चुनावी परिदृश्य में चाणक्य तक कहा गया. जिसने साल 2014 के आम चुनाव में जीत का सेहरा पीएम मोदी के सर बांधने में निर्णायक भूमिका अदा की. तो उसके उलट साल 2015 में पीएम मोदी और बीजेपी के तमाम विरोध के बावजूद नीतीश कुमार को बिहार का सीएम बनाने में अहम भूमिका निभाई.
शायद यही वजहें रहीं कि भारत की सियासत में लगातार पिछड़ रहे राहुल गांधी ने भी प्रशांत किशोर का रुख किया. खुद को साबित करने के लिए प्रशांत भी राहुल और कांग्रेस के साथ हो लिए. शुरुआत में प्रशांत को पंजाब और उत्तरप्रदेश की जिम्मेदारी मिली. सियासी लिहाज से यह गंभीर चुनौती थी. यूपी में कांग्रेस 27 सालों से सत्ता से बाहर और खस्ताहाल थी. तो वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी का मजबूती से लड़ना और अकालियों से लड़ना एक नई चुनौती थी.
पीके ने भी पंजाब चुनाव के मद्देनजर कैप्टन अमरिंदर के इर्द गिर्द रणनीति तैयार की. कॉफी विद कैप्टन और हल्के विच कैप्टन जैसे प्रोग्राम डिजाइन किए. पंजाब दा कैप्टन, कैप्टन दा पंजाब जैसे स्लोगन आए. युवाओं को रिझाने के लिए तमाम प्रोग्राम और वायदे किए गए. पंजाब में पंजे ने आम आदमी पार्टी और अकालियों के साथ बीजेपी को पछाड़ते हुए जीत हासिल की. ऐसे में आम आदमी पार्टी का देश भर में कांग्रेस का विकल्प बनने का मंसूबे परवान नहीं चढ़ सके. पीके पंजाब में हिट रहे लेकिन यूपी ने पंजाब के जश्न में खलल डाल दी.
यूपी में पीके चारों खाने चित्त हो गए. पहले देवरिया से दिल्ली तक राहुल की किसान यात्रा. शीला दीक्षित को सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट करना. नयी टीम के साथ पीके ने जोरदार शुरुआत तो जरूर की. वे इस बीच बीजेपी को रोकने के नाम पर बसपा से गठजोड़ की कोशिश में लगे. बसपा तैयार नहीं हुई तो सपा से गठजोड़ कर लिया. यूपी को ये साथ पसन्द है. यूपी के लड़के बनाम बाहरी मोदी के नारे और थीम के साथ जोरशोर से प्रचार शुरू किया. राहुल और अखिलेश ने साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस और रोड शो किए. सफलता की चाभी- डिंपल भाभी जैसे नारों के साथ सांसद बीच डिंपल भी राहुल-अखिलेश के साथ प्रचार में कूदीं.
कांग्रेस के साथ-साथ सपा भी धरातल पर
ऐसे में माना जा रहा है कि सपा के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर, नॉन यादव की सपा से नाराजगी और मुस्लिम तुष्टिकरण के तमगे ने सपा को जमीन पर ला पटका. तमाम कोशिशों के बावजूद पीके इस बात को नहीं भांप सके. यूपी चुनावों में कांग्रेस को सिर्फ 7 सीटें मिलीं और यह उनका सबसे खराब प्रदर्शन है. इस बीत उत्तराखंड में नाजुक स्थिति को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें वहां की भी जिम्मेदारी सौंपी लेकिन वहां भी वे खेत रहे. उत्तराखंड में भी कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे खराब रहा.
कांग्रेस के भीतर भी उठ रहे सवाल
इस हार-जीत के बाद प्रशांत किशोर को लेकर कांग्रेस के भीतर भी सवाल उठ रहे हैं. पंजाब की जीत का श्रेय देने के बजाय यूपी की बड़ी हार की वजह से वे सबके निशाने पर हैं. हालांकि कांग्रेस और पीके का सियासी साथ अभी अधर में है. इस मसले पर राहुल और पीके की ओर से कोई बयान नहीं आया है. पीके के करीबी सूत्रों की मानें तो यूपी की हार ने उन्हें भी बुरी तरह चौंकाया है. ऐसे में पीके और उनकी टीम कांग्रेस के साथ आगे बढ़ने और अलग होने की रणनीति पर राहुल गांधी से गहन चर्चा के बाद ही कोई फैसला लेगी.