दुनिया के कुछ सबसे खूबसूरत शब्दों में से अव्वल हैं पिता के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले सम्बोधन, पापा, डैडी या बाबूजी. दुनिया की अलग-अलग भाषाओं-बोलियों में पिता को अलग-अलग तरीके से सम्बोधित किया जाता है लेकिन फिर भी अंदाज और सम्मान एक सा बना रहता है.
हम अपने पिताजी को वैसे तो पापा कह कर पुकारते हैं लेकिन मोबाइल में आज भी उनका नंबर बाबूजी से सेव कर रखा है. वो क्या है न कि पापा और डैडी जैसे शब्दों में हम आत्मीयता नहीं महसूस कर पाते. ऐसा लगता है जैसे माटी की सोंधी खूशबू से वंचित कर दिए गए हों. पिता भी हमेशा से धीर-गंभीर ही बने रहे. देर रात कहीं से भी थके-मांदे आने के बावजूद सुबह-सुबह उठ जाने वाले.
हमारी सारी खुशियों के लिए अपने स्व की कुर्बानी देने वाले. हमारे सपनों में ही अपनी खुशी ढ़ूढने वाले. झक्क सफेद कुर्ते के नीच फटी बनियान पहनने वाले. बाटा की सैंडल पहनने वाले. हमारे किसी भी फरमाइश को पूरी करने के लिए तत्पर रहने वाले. खुद भले ही बाजार की तमाम चीजों से परहेज करते हों मगर हमारे लिए उनकी व्यवस्था करने वाले. कहा जा रहा है कि आज उनका ही दिन है. बाजार ने उनका भी एक दिन निर्धारित कर दिया है. जिस दिन बच्चे अपने बाबूजी से विशेष लाड़ जताएंगे. फोन कर हैप्पी फादर्स डे विश करेंगे.
हम इस बात को बखूबी जानते हैं कि हम अपने बाबूजी के साथ ऐसी कोई फॉर्मेलिटी नहीं अदा करने वाले, और उन्हें दुनिया की तमाम फॉर्मेलेटी से परे ही रखना चाहते हैं. वे जैसे हैं ठीक वैसे ही. जिनकी ठसक और बेबाकी हम दूर रह कर मिस भी करते हैं और धीरे-धीरे ठीक उन जैसे ही बन जाना चाहते हैं. न कम और न ज्यादा. सारी पारिवारिक जिम्मेदारियों का चेहरे पर शिकन लाए बगैर निर्वहन करने वाले. लाख टेंशन में होने के बावजूद सारा दर्द खुद में जज्ब करने वाले. हमारी खुशी से खुश और हमारी परेशानियों से परेशान हो जाने वाले. बाबूजी तो बस ऐसे ही हैं.
बात आज से सालों पहले की है. हम तब पहलेपहल हॉस्टल भेजे गए थे. बेहतर स्कूल और भविष्य की उम्मीद में 11-12 की उम्र में ही गांव-घर से दूर. हॉस्टल में छोड़े जाने के बाद वो दशहरे की पहली छुट्टियां थीं. धीरे-धीरे हॉस्टल से सारे दोस्त भी अपने-अपने घरों की ओर रुखसत कर गए. पूरे हॉस्टल में सिर्फ हम ही अकेले बचे थे. बाबूजी को संदेश भेज दिया गया था. बाबूजी अष्टमी के रोज आए थे. हम तब तक न जाने कितने राउंड रो चुके थे. खुद को निस्सहाय और बेसहारा मान चुके थे, लेकिन फिर बाबूजी आए और सब-कुछ बदल गया. बाबूजी पहली और शायद अंतिम बार हमें मेला घूमाने ले गए. दशहरे का मेला और तिस पर से भी बनारस का मेला. जहां तक नजरें जाती थीं, सिर्फ मुंड ही मुंड (लोग ही लोग).
बनारस के मशहूर हथुआ मार्केट में बिठाई गई दुर्गा मइया. चेतगंज में इलेक्ट्रॉनिक पर फिट चंड-मुंड और उनका संहार करतीं दुर्गा मइया. उन्हें देखने वाली हजारों की भीड़ और उसे देखने के लिए हमारी नाकाफी लंबाई. बाबूजी हमें जगह-जगह कांधे पर बिठा लिया करते. उस समय हम खुद को किसी राजकुमार से कम न समझते. ऐसा लगता जैसे हम दुनिया के सबसे अमीर इंसान हों. उसके बाद न जाने कितने मेले घूमे. कई बार अकेले और कई बार दोस्तों के साथ, खूब मस्ती भी की, लेकिन एक वो मेला है जिसकी यादें आज भी चेहरे पर मुस्कान ले आती हैं...