scorecardresearch
 

EXCLUSIVE: सुभाष चंद्र बोस का पत्र, नेहरू ने जितना मेरा नुकसान किया उतना किसी ने नहीं

नेताजी ने अपने भतीजे अमिय नाथ को 1939 में भेजे पत्र में लिखा था, 'मेरा किसी ने भी उतना नुकसान नहीं किया जितना जवाहरलाल नेहरू ने किया.' महात्मा गांधी की राजनैतिक विरासत के दोनों दावेदार थे.

Advertisement
X
subhash chandra bose (File Photo)
subhash chandra bose (File Photo)

नेताजी ने अपने भतीजे अमिय नाथ को 1939 में भेजे पत्र में लिखा था, 'मेरा किसी ने भी उतना नुकसान नहीं किया जितना जवाहरलाल नेहरू ने किया.' महात्मा गांधी की राजनैतिक विरासत के दोनों दावेदार थे. संपूर्ण आजादी को लेकर बोस के आग्रह से गांधी को दिक्कत थी, लिहाजा उन्होंने बोस की जगह नेहरू को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी चुना.

इसके बाद बोस अलग हो गए. नेहरू को इस बात से दिक्कत थी कि बोस नाजी जर्मनी और फासिस्ट इटली के प्रशंसक थे. नेताजी ने आखिरकार कांग्रेस के अध्यक्ष पद से 1939 में इस्तीफा दे दिया. इतिहासकार रूद्रांगशु मुखर्जी की 2014 में आई किताब नेहरू ऐंड बोसरू पैरेलल लाइन्स कहती है, 'बोस मानते थे कि वे और जवाहरलाल मिलकर इतिहास बना सकते थे लेकिन जवाहरलाल को गांधी के बगैर अपनी नियति नहीं दिखती थी जबकि गांधी के पास सुभाष के लिए कोई जगह नहीं थी.'

कौम के भटके सिपाही थे नेता जी!

इसके बावजूद अपने से आठ साल वरिष्ठ नेहरू को लेकर नेताजी के मन में कोई दुर्भावना नहीं थी. वे उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और यहां तक कि उन्होंने आइएनए की एक रेजिमेंट को ही नेहरू के नाम पर रख दिया था. नेहरू को जब बोस की मौत की खबर 1945 में मिली तो वे सार्वजनिक रूप से रोये थे.{mospagebreak}
फिर सवाल उठता है कि आखिर नेहरू सरकार ने बोस परिवार की इतनी कड़ी निगहबानी क्यों करवाई? यह सवाल इसलिए भी खास है क्योंकि नेहरू को जासूसी जैसे काम से बहुत नफरत थी. आइबी के पूर्व मुखिया बी.एन. मलिक 1971 में आई अपनी किताब माइ इयर्स विद नेहरू में लिखते हैं कि प्रधानमंत्री 'को इस काम (जासूसी) से इतनी चिढ़ थी कि वे हमें दूसरे देशों के उन खुफिया संगठनों के खिलाफ भी काम करने की अनुमति नहीं देते जो भारत में अपने दूतावास की आड़ में काम करते थे.'

यह जासूसी कुल 20 साल तक चली जिसमें 16 साल तक नेहरू प्रधानमंत्री थे. बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और लेखक एम.जे. अकबर कहते हैं, 'सीधे नेहरू को रिपोर्ट करने वाली आइबी की ओर से बोस परिवार की इतने लंबे समय तक जासूसी की सिर्फ एक वाजिब वजह जान पड़ती है.

सरकार आश्वस्त नहीं थी कि बोस की मौत हो चुकी है और उसे लगता था कि अगर वे जिंदा हैं तो किसी न किसी रूप में कोलकाता स्थित अपने परिवार के साथ संपर्क में होंगे. आखिर कांग्रेस को इस बारे में संदेह करने की जरूरत ही क्या थी? बोस इकलौते करिश्माई नेता थे जो कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर सकते थे और 1957 के चुनावों में गंभीर चुनौती खड़ी कर सकते थे. यह कहना बेहतर होगा कि अगर बोस जिंदा होते तो जिस गठबंधन ने कांग्रेस को 1977 में हराया, उसने 1962 के चुनाव में या फिर 15 साल पहले ही कांग्रेस को ध्वस्त कर दिया होता.'

'पहुंचने से पहले पढ़ा गया था नेताजी की पत्नी का पत्र'

बोस परिवार की गतिविधियों में नेहरू की दिलचस्पी को दर्शाने वाला सिर्फ एक दस्तावेजी साक्ष्य मौजूद है. यह 26 नवंबर, 1957 को प्रधानमंत्री की ओर से विदेश सचिव सुबिमल दत्त को लिखी गोपनीय चिट्ठी है जिसमें नेहरू ने लिखा है, ''मैंने जापान से निकलने के ठीक पहले सुना कि श्री शरत चंद्र बोस के पुत्र श्री अमिय बोस टोक्यो पहुंचे थे. {mospagebreak}
मैं जब भारत में था तब उन्होंने पहले ही मुझे बताया था कि वे वहां जा रहे हैं. मैं चाहता हूं कि आप टोक्यो में हमारे राजदूत को लिखें और यह पता लगाएं कि श्री अमिय बोस ने टोक्यो में क्या किया. क्या वे हमारे दूतावास गए थे? क्या वे रेंकोजी मंदिर गए थे?'' राजदूत का जवाब नकारात्मक रहा था.

अमिय बोस ने 1949 में शिशिर बोस को एक पत्र लिखा था. उस वक्त शिशिर बोस लंदन में मेडिकल के छात्र थे. पत्र में यह पता लगाने को कहा गया था कि क्या कोई जर्मन जनरल दोबारा पश्चिमी जर्मनी में सक्रिय है, खासकर हिटलर का पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ जनरल फ्रांज हाल्दर.

कृष्णा बोस कहती हैं, 'स्पष्ट तौर पर यहां सरकार की सनक दिखाई देती है. मेरे पति नेताजी रिसर्च फाउंडेशन स्थापित करने के लिए सामग्री इकट्ठा कर रहे थे. इस फाउंडेशन को सिर्फ पत्र व्यवहार से ही खड़ा किया गया था.' आइबी हालांकि कुछ और ही मानती थी. आइबी का 1968 का एक ''टॉप सीक्रेट'' नोट अमिय बोस के बारे में कहता है, ''यह व्यक्ति अब आइएनए के पुराने लोगों के साथ मिलकर आजाद हिंद दल के गठन में कथित तौर पर बहुत दिलचस्पी ले रहा है. खबर है कि इसने राज्य और केंद्र में कुछ प्रमुख लोगों को प्रभावित करने में कामयाबी हासिल कर ली है...'

रॉ के पूर्व विशेष सचिव वी. बालचंद्रन का मानना है कि बोस परिवार पर उसके कम्युनिस्ट रुझानों के चलते निगाह रखी जा रही थी. वे गाइ लिडेल की डायरियों की ओर इशारा करते हैं, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एमआइ5 के काउंटर-एस्पायोनेज विंग का मुखिया था. ये डायरियां 2012 में प्रकाशित हुई थीं जिसमें ब्रिटिश आंतरिक सुरक्षा सेवाओं के साथ आइबी के नाभिनाल रिश्तों का जिक्र था.{mospagebreak}
एमआइ5 की प्राथमिकता में कम्युनिस्टों पर नजर रखना था. यही विरासत आइबी को भी प्राप्त हुई. मार्च 1947 में भारत के अपने दौरे पर लिडेल का दावा था कि उसने अंग्रेजी राज के खात्मे के बाद नई दिल्ली में एमआइ5 के एक सिक्योरिटी लायजन अफसर को रखवाने के लिए नेहरू से मंजूरी हासिल कर ली थी. बालचंद्रन कहते हैं, 'कम्युनिस्टों का पीछा करने की आइबी की सनक 1975 तक जारी रही जब तक कि इंदिरा गांधी ने विराम नहीं लगा दिया.'

रहस्यों का खजाना
भारत की आजादी की लड़ाई के योद्धाओं की फेहरिस्त में नेताजी का नाम कुछ देर से जोड़ा गया. संसद में उनकी तस्वीर का अनावरण 1978 में हुआ. ऐसा शायद इसलिए क्योंकि ऐसा करना अहिंसक स्वतंत्रता आंदोलन के गांधीवादी आख्यान को आघात पहुंचाता था. इसके अलावा इतिहास की किताबों ने आइएनए के उन 2000 से ज्यादा सिपाहियों की भी सुध नहीं ली जो बर्मा और उत्तर-पूर्व में अंग्रेजों के खिलाफ  लड़ते हुए शहीद हुए.

पिछले वर्षों में बोस की साहसगाथा ने न सिर्फ रहस्य कथाओं को जन्म दिया बल्कि लिट्टे के पूर्व प्रमुख प्रभाकरण जैसे तमाम प्रशंसकों को भी अपनी ओर खींचा. माना जाता है कि बोस भागकर चीन और सोवियत संघ चले गए थे, जहां से भारत लौटने के बाद वे उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में ''बाबा'' बनकर रहे और उनकी मृत्यु 1985 में हुई. बोस के जिंदा रहते उनके भागने की ये कहानियां गढ़ी गई थीः अफगानिस्तान जाने के लिए बोस ने पठान का वेश धरा, रूस में यात्रा करने के लिए वे इतालवी कारोबारी बन गए, और हिंद महासागर के बीचोबीच जर्मनी की पनडुब्बी से जापान की पनडुब्बी में आ गए. सरकार ने नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक करने से इनकार नहीं किया होता तो इन तमाम कथाओं पर कब का विराम लग गया होता.

वजाहत हबीबुल्ला कहते हैं,'यह तथ्य अपने आप में बोस के रहस्य को और गहरा देता है कि जिन फाइलों को 1960 और 1970 के दशक में सार्वजनिक किया जाना चाहिए था वैसा अब तक नहीं किया गया है.'भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त के तौर पर अपने पांच साल के कार्यकाल में हबीबुल्ला के पास नेताजी की फाइलों को सामने लाने के तमाम आवेदन आए जिन्हें सरकार ने ठुकरा दिया.{mospagebreak}
नेहरू के बाद आई सभी सरकारों ने नेताओं, शोधकर्ताओं और पत्रकारों से एक ही बात कही है कि नेताजी से जुड़ी 150 से ज्यादा फाइलों की सामग्री इतनी संवेदनशील है कि उन्हें सामने लाने से कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है, खासकर पश्चिम बंगाल में ऐसा हो सकता है. इससे भी बुरा यह कि ऐसा करने से 'मित्रवत देशों के साथ भारत के रिश्ते खराब हो जाएंगे.'

मोदी सरकार ने 2014 में कानून व्यवस्था का बहाना तो नहीं बनाया लेकिन आधिकारिक लाइन वही कायम रही. तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुखेंदु शेखर रॉय के एक सवाल पर में गृह राज्यमंत्री हरिभाई पार्थिभाई चौधरी ने 17 दिसंबर, 2014 को राज्यसभा में दिए लिखित जवाब में कहा, ''गोपनीयता हटाना दूसरे देशों से भारत के रिश्तों के लिहाज से ठीक नहीं है.'' पीएमओ में बंद नेताजी से जुड़ी पांच फाइलें इतनी गोपनीय हैं कि सूचना के अधिकार के तहत उनके नाम तक नहीं बताए गए.

सवाल उठता है कि पीएमओ में तालाबंद इन फाइलों में ऐसा कौन-सा भीषण सरकारी राज छिपा है? रॉय के शब्दों में कहें तो ये ऐसे राज हैं जिनके चलते राजनाथ सिंह सचाई के समर्थक से एक ऐसे शख्स में तब्दील हो गए जो ''लोकसभा में चुपचाप बैठकर सिर हिलाते रहे जब मैंने इन्हें सार्वजनिक करने की मांग की.''

रॉय पूछते हैं, ''विमान हादसे में हुई नेताजी की मौत का दोष दूसरे देशों पर कैसे मढ़ा जा सकता है. जाहिर है, कुछ और वजह हैं जिन्हें बीजेपी और कांग्रेस छिपाना चाहती हैं.' तीन प्रधानमंत्रियों ने अब तक इस सचाई को सामने लाने के लिए जांच आयोगों का गठन किया है-1956 में नेहरू, 1970 में इंदिरा गांधी और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी. इनमें से दो-1956 की शाहनवाज कमेटी और 1974 में खोसला आयोग ने निष्कर्ष दिया कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई. इनके निष्कर्षों को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने 1978 में खारिज किया था. जस्टिस (एम.के.) मुखर्जी आयोग ने कहा कि नेताजी ने अपनी मौत की झूठी कहानी बनाई और सोवियत संघ भाग गए थे. इसे 2006 में यूपीए सरकार ने खारिज किया.

इन जांचों ने अक्सर अटकलबाजियों को हवा देने का काम किया है. बीजेपी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी 1970 में खोसला आयोग के समक्ष श्यामलाल जैन की गवाही का हवाला देते हैं जो नेहरू के स्टेनोग्राफर थे. जैन ने कबूला था कि उन्होंने एक पत्र टंकित किया था जो नेहरू ने 1945 में स्टालिन को भेजा था जिसमें वे बोस को बंधक बनाए जाने की बात स्वीकारते हैं.{mospagebreak}
स्वामी का दावा है, ''विमान हादसा फरेब था. नेताजी ने सोवियत संघ में शरण ली थी जहां वे कैद कर लिए गए थे. बाद में स्तालिन ने उन्हें मार दिया.' बोस की बेटी अनिता समेत उनका समूचा परिवार चाहता है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास मौजूद सभी रिपोर्टों को गोपनीयता के दायरे से मुक्त किया जाए. चंद्र कुमार कहते हैं, 'पीएमओ, विदेश मंत्रालय, आइबी, सीबीआइ और इतिहासकारों के प्रतिनिधियों की खास अन्वेषण टीम बनाकर उन दस्तावेजों पर शोध होना चाहिए और सुभाष चंद्र की कहानी जनता के सामने लाई जानी चाहिए.' अगर मौजूदा रहस्योद्घाटन वाकई किसी काम के हैं, तो इनके आधार पर नेताजी की फाइलों की पड़ताल भारत के सबसे पुराने सियासी रहस्य पर से परदा उठाने का काम कर सकती है.

कब-कब हुई जासूसी?

1948
आइबी ने बोस परिवार के सदस्यों की अंग्रेजी राज में निगरानी को जारी रखा और उनके भतीजे शिशिर कुमार बोस और अमिय नाथ बोस पर विशेष नजर रखी. पत्राचार और परिवार के सदस्यों की सभी यात्राओं की भी जासूसी की गई.

1951
फॉरवर्ड ब्लॉक ने बोस के गायब होने का मुद्दा संसद में उठाया. नेहरू ने दोहराया कि जापान जाते समय विमान हादसे में उनकी मौत हुई थी और उनकी अस्थियां रेंकोजी मंदिर में सुरक्षित हैं.

1955
नेहरू ने आइएनए में नेताजी के सहयोगी और भाई सुरेश बोस की अध्यक्षता में शाहनवाज पैनल गठित किया. पैनल के मुताबिक, बोस की मृत्यु विमान हादसे में हुई. सुरेश ने इससे असहमति जताते हुए कहा कि नेताजी सोवियत संघ चले गए थे.

1968
बोस के परिजनों पर आइबी की जासूसी के रिकॉर्ड की आखिरी तारीख.

1970
विपक्ष के सदस्यों की मांग के बाद इंदिरा गांधी ने जी.डी. खोसला पैनल का गठन किया. पैनल ने 1974 में अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें कहा कि नेताजी विमान हादसे में मरे थे. इस पर पूर्वाग्रह के आरोप हैं.

1978
सबूतों में विरोधाभास के चलते प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने शाहनवाज और खोसला पैनल के निष्कर्षों को खारिज कर दिया.

1999
गृह मंत्रालय ने कलकत्ता हाइकोर्ट के आदेश पर जस्टिस मुखर्जी जांच आयोग का गठन किया.

2006
मुखर्जी आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश करके कहा कि नेताजी की मौत विमान हादसे में नहीं हुई थी बल्कि सोवियत संघ जाते समय हुई थी. यूपीए सरकार ने इसके निष्कर्षों को खारिज कर दिया.

2014
यूपीए और एनडीए दोनों ने ही प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय के पास पड़ी नेताजी से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करने से इनकार किया. बोस परिवार से संबंधित पश्चिम बंगाल गुप्तचर विभाग की फाइलें सार्वजनिक की जा रही हैं और इन्हें दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखा जाएगा.

गोपनीय तथ्य
सरकार ने नेताजी से जुड़ी करीब 150 फाइलों का गोपनीय दस्तावेज पिछले 60 वर्षों में बनाया है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इन फाइलों में अहम संकेत छिपे हो सकते हैं

प्रधानमंत्री कार्यालय
टॉप सीक्रेट-4 -फाइलें   
सीक्रेट- 20
कॉन्फिडेंशियल-5
अनक्लासिफाइड-8
इंटेलीजेंस ब्यूरो सीक्रेट-77 फाइलें
गृह मंत्रालय-70,000 पन्ने
विदेश मंत्रालय- 29 फाइलें
टॉप सीक्रेट 8  

Advertisement
Advertisement