कोचिंग हब कोटा की ग्राउंड रिपोर्ट की सीरीज में कल (11 जुलाई) आपने पढ़ी डॉक्टर-इंजीनियर बनने के सपने के बोझ तले दबे बच्चों की कहानी. आज पढ़िए उन मां-बाप का दर्द जिनके बच्चे कामयाबी की इस दौड़ में जिंदगी से हार गए.
11 मई को कुन्हाड़ी के एक हॉस्टल में 16 साल के उमेश वर्मा ने फांसी लगा ली. वे मेडिकल एंट्रेस की तैयारी कर रहे थे. एक रात पहले कई बार फोन करने पर भी जब जवाब नहीं आया, तो अगली सुबह वहीं रहने वाले एक रिश्तेदार को भेजा गया. दरवाजा तोड़ने पर उमेश का शरीर फंदे से झूलता दिखा. आसपास हर कमरे में कोई न कोई रहता है, लेकिन किसी को भनक तक नहीं हुई. इसी साल 15 मौतें हो चुकी, जिनमें से 9 आत्महत्याएं मई-जून और 1 जुलाई की है. ज्यादातर मामलों का पता घंटों बाद लग सका.
कोटा में ये नया नहीं. न ही इन्हें रोकने के 'दावे' नए हैं.
शहर के किसी भी इलाके में जाइए, जहां कोचिंग संस्थान हैं. पढ़ाई के विज्ञापन के अलावा जो एक चीज कॉमन दिखेगी, वो है हेल्पलाइन नंबर.
कहानी कोटा कीः जहां बच्चे वो मशीन हैं जिसमें जरा सा डिफेक्ट दिखा नहीं कि माल वापस!
कई नंबर हैं, जो 24*7 बच्चों के दुख-तकलीफें सुनने का दावा करते हैं. बीच-बीच में खास स्टूडेंट्स के लिए बनी चौकियां हैं, जहां पुलिसवाले मुस्तैद रहते हैं. यहां तक कि कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के पास भी बड़ी-बड़ी डिग्रियों वाले मनोवैज्ञानिक हैं, जो दिमाग खोले बगैर सबकुछ पढ़ लें. इसके बाद भी आत्महत्याएं हो रही हैं.
क्यों? ये पूछने पर शहर दाएं-बाएं झांकता है. एक ने झींकते हुए कहा- इतने लाख स्टूडेंट आते हैं. दो-चार खप भी गए तो क्या! आप दिल्लीवालों को अपनी छोड़ सबकी फिक्र रहती है.
डेढ़ दिनों तक मैं कोटा के हर कोने में भटकती रही. बच्चों से मिली. पेरेंट्स के पास गई. पुलिस थाने और काउंसलरों के चक्कर काटे. मीडिया सुनते ही लोगों ने बात करने से इनकार कर दिया. कुछ ने ऑफ-कैमरा बात की. तो ज्यादातर ने सारा इलजाम पेरेंट्स और बच्चों पर डाल दिया.
लैंडमार्क सिटी में हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष भगवान बिड़ला छूटते ही कहते हैं- बच्चा स्कूल में फर्स्ट क्या आया, मां-बाप के सपने बुलंद हो जाते हैं. वे उन्हें देश के सबसे मुश्किल इम्तिहानों में टॉप करने वाला मान बैठते हैं. कोटा आकर स्टूडेंट को समझ आता है कि वो अपने स्कूल का तो टॉपर था, लेकिन कंपीटिशन तगड़ा है. ये सिलसिला कई बार घर वापसी पर खत्म होता है. या फिर खुदकुशी पर.
जिन बच्चों से हमें रोटी मिल रही है, हम क्यों उनका बुरा चाहेंगे. लेकिन घरवाले पढ़ाई पर जोर देते रहते हैं. यही बात कई थोड़े कमजोर बच्चे सह नहीं पाते.
ऐसे ही बच्चों की कहानियां तलाशते हुए हमने उन पेरेंट्स के नंबर निकाले, जिनके बच्चों की हाल में मौत हुई हो. इन्हीं में से एक था उमेश. खुर्जा का रहने वाला. घर का सबसे छोटा बच्चा. कोटा में रहने के 1 महीना 10 दिन बाद उसने फांसी लगा दी. फोन पर उमेश की मां से बात हुई.
पढ़ने-लिखने में अच्छा था मेरा बेटा. डॉक्टरी की तैयारी कर रहा था. कोटा में हॉस्टल भी हमने उसे 15 हजार का दिलवाया. खाना-पीना, साफ-सफाई सब उनके जिम्मे थी. हमने कहा, तू बस पढ़. – इतना कहते-कहते फोन पार लंबी चुप्पी छा जाती है.
सांस साधे मैं इंतजार करती रहती हूं. उधर से कोई आवाज न आने पर पूछना पड़ता है- फिर?
2 दिन पहले उमेश को सिरदर्द उठा था. हमने वीडियो कॉल किया तो सिर ठंडा करने वाले तेल की बात पूछने लगा. कॉल पर ही दर्द की दवा खाई. फिर सब नॉर्मल लगने लगा, जब तक ये हादसा नहीं हुआ.
मौत से पहली रात मैंने कई बार कॉल किया. फोन नहीं उठा. सुबह 6 बजे कॉल किया, तो भी घंटी जाती रही. उससे पहले लगातार बुरी खबरें सुन चुके थे. डरकर एक लोकल रिश्तेदार को मिलने भेजा, लेकिन तब तक सब खत्म हो चुका था.
बाद में उसके दोस्तों से पता लगा कि क्लास में टीचर्स ने उसे बहुत डांटा था. सबके सामने खड़ा करके कहा कि मां-बाप का पैसा बिगाड़ रहे हो. शायद यही बात मेरा बेटा सह नहीं पाया.
कोचिंग, हॉस्टल सबने मिलकर बच्चे को मार डाला. हम उसे उनके भरोसे छोड़कर आए थे. रोकर थक चुकी आवाज रिक्वेस्ट सा करती है- आप लोग कुछ कीजिए न!
बातचीत फोन पर हो रही थी लेकिन लगा जैसे किसी ने लपककर हाथ थाम लिया हो. मैं झूठा-सच्चा भरोसा देते हुए कॉल रख देती हूं.
दूसरा नंबर रोहतास के निशांत के घर का था. डॉक्टरी की तैयारी करते हुए सालभर से ज्यादा समय कोटा रह चुके निशांत ने फांसी लगा ली. उनकी टेबल पर एक सुसाइड नोट भी मिला, जिसमें लिखा था- मम्मी-पापा, आपने मेरे लिए बहुत कोशिश की, लेकिन मैं कर नहीं सका. मुझे माफ कर देना.
कच्ची-पक्की हिंदी-अंग्रेजी में लिखा नोट. एक थाने में ऑफ-रिकॉर्ड ऐसे नोट्स देखते हुए मैंने पूछा था- ये कागज पेरेंट्स अपने साथ नहीं ले जाते! ये तो उनके बच्चों की आखिरी याद होती है.
चिट्ठी दिखा रहा अफसर तिलमिलाकर कहता है- याद नहीं, मौत की निशानी होती है ये. कौन-सी मां या पिता इसे अपने पास रख सकेंगे. सब यहीं छोड़कर चले जाते हैं. फिर हम रिकॉर्ड में रख लेते हैं.
कॉल निशांत के पापा उठाते हैं. परिचय देने पर बात करने से मना कर देते हैं. थोड़ी मनुहार के बाद कुछ बताने ही लगते हैं कि पास से किसी के रोने की तेज आवाज आई.
‘निशू (निशांत) की मां रो रही है. इसलिए मैं किसी से बात नहीं करता. उसका नाम सुन ले तो पगला जाती है.’ वे माफी मांगते-से कहते हैं.
जा चुके बच्चों के पेरेंट्स से बात करने का सिलसिला यहीं खत्म हो जाता है. मैं अब उन अपार्टमेंट्स की तरफ हूं, जहां घरवाले अपना शहर, अपना कामधाम छोड़कर बच्चे की कोचिंग के लिए बसे हुए हैं.
1BHK फ्लैट्स आपस में ऐसे सटे हुए, जैसे गेंदाफूल की पंखुड़ियां. अपार्टमेंट का मैनेजर मुझे एक फ्लैट के सामने छोड़कर चला जाता है. खटखटाने पर जो महिला मिलती हैं, वो झांसी से हैं. सवालों के दौरान बहुत सादा ढंग से कहती हैं- मेरी बेटी खाने में ‘चूजी’ है. हॉस्टल में रहती तो बीमार पड़ जाती. यहां घर का खाना भी मिलेगा, और कोई डर भी नहीं रहेगा.
कैसा डर?
वही, जिस बारे में हम-आप सुनते हैं.
‘बस, अब और मत पूछिए. बेटी कोचिंग से आती होगी.’ वे बात बीच में छोड़कर घर दिखाने लगती हैं.
घरेलूपन की छाप हर कोने में. छोटे हॉल में प्लास्टिक की टेबल पर फल, अचार, पापड़ जैसे छुटपुट सामान रखे हुए. अंदर के कमरे में बेटी पढ़ती होगी. सफेद कागज पर रंग-बिरंगे नोट्स झांक रहे हैं. एक प्लेटफॉर्म पर गैस चूल्हा और थोड़े से बर्तन. सबकुछ वैसा ही, जैसा नए शहर में आए किसी नवेले जोड़े का होता है. सबकुछ उतना ही, जितने में कामभर चल जाए.
झांसी की ये महिला डॉक्टर-पत्नी है. वहां बड़ा मकान, अहाता और पड़ोसियों को छोड़कर यहां बस गई. कैसा लगता है ऐसे रहना, पूछने पर फीकी हंसी लिए कहती है- बस, तपस्या ही समझ लीजिए.
कई घर घूमती हूं. किसी फ्लैट में दादा-दादी संग पोता, किसी में नानी के साथ नातिन बसी हुई. बंगाल के एक परिवार में पिता अपनी बेटी के साथ आए हुए हैं ताकि वो ‘डेविएंट’ न हो जाए, यानी भटके नहीं. बांग्ला-घुली हिंदी में कहते हैं- इसकी मदर चैन्नई में जॉब करती है. मेरा बिजनेस था. मैनेज कर लेता हूं जैसे-तैसे.
उनका घर काफी सलीके से सजा हुआ. कोने में फूलदान के नीचे फैमिली पिक्चर लगी है. देखता हुआ पाने पर कहते हैं- डॉटर अपने साथ ले आई. मदर से काफी अटैज्ड है.
आत्महत्याओं की खबर फैलने के साथ ही कोटा में नया चलन आया. हॉस्टल-पीजी के अलावा बहुत से पेरेंट्स फ्लैट लेने लगे. परिवार का एकाध सदस्य बच्चे के साथ रहता है. सबका एक ही डर- बच्चा भटक न जाए.
कोटा ने मौत के डर को भी बिजनेस बना दिया.
खास इसी मकसद से अपार्टमेंट बनने लगे. एक रूम-किचन वाले इन फ्लैट्स में आपको किसी बात की चिंता नहीं करनी. बस, बच्चे और बैग के साथ शिफ्ट हो जाइए.
बिल्डिंग का ‘मैनेजर’ गैस चूल्हा से लेकर पानी का फिल्टर भी दिलाएगा, और घर में घुसी छिपकली भी भगाएगा.
शहर के हर कोने में बंदनवार की तरह ‘किराए पर कमरों’ की तख्ती लगी है. कैंटीनों में ‘घर का खाना’ के वादे. और इनके बीच खो चुके वे बच्चे, जिनका नाम भी कोटावाले किसी ‘साजिश’ की तरह बच-बचाकर लेते हैं.
(पहचान छिपाने के लिए रिपोर्ट में कई नाम बदले गए हैं.)