फाइव-स्टार होटल को पीछे छोड़ते हॉस्टल का लाउंज. लंबा-चौड़ा रिसेप्शन. बड़े-बड़े झूमर और बैठने के लिए आला दर्जे की टेबल-कुर्सियां. वहां के मालिक मुझे सारे बंदोबस्त दिखाते हैं. सीसीटीवी. बायोमैट्रिक. इमारत के हर कोने में मजबूत जालियों का घेरा. पूछने पर गर्व से कहते हैं- अजी, हमने पूरा खयाल रखा. बच्चे जान देना चाहें तो वहीं पकड़े जाएंगे.
ये कोटा है. यहां किराए पर कमरे ही नहीं, किराए पर ख्वाब भी मिलते हैं. डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का ख्वाब. इन सपनों को पूरा करने का वादा लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट चलते हैं. उनके साथ ही चलता है, एक पूरा कारोबार.
15-16 साल के बच्चे को कैसे जिंदा मशीन में बदल दिया जाए. सबकुछ बेरोक-टोक चलता रहता है, जब तक कोई मशीन धड़कना बंद नहीं कर देती.
बीते दो महीनों में 9 बच्चों ने खुदकुशी कर ली. कोई छत से कूदा. कोई पंखे से लटका. किसी ने सुसाइड नोट लिखा. कोई चुपचाप चला गया. कुछ दिन उसका कमरा बंद रहा. फिर धो-पोंछकर किसी नए बच्चे को दे दिया गया. हर कोई मिलकर मौत की गंध मिटाने में लगा हुआ है.
एक बड़े अधिकारी नाम छिपाने की शर्त पर कहते हैं- शहर बारूद के ढेर पर बसा है. एक चिंगारी और सारी चमक-दमक राख हो जाएगी. इमारतें डिब्बा बन जाएंगी. मुर्दा बचपन की कीमत पर जिंदा है ये शहर.
दिल्ली से करीब 5 सौ किलोमीटर दूर कोटा के लिए निकली तो थोड़ा-बहुत होमवर्क किया हुआ था. कुछ नंबर थे, जिनपर कॉल किया जाना था. कुछ लोग थे, जिनसे मिलना था. लेकिन रेलवे स्टेशन से बाहर आते ही होमवर्क धरा का धरा रह गया. अब अपनी कहानी का मैं खुद एक कैरेक्टर थी.
कुछ ऑटोवालों ने घेर लिया, जो मुझे ‘अपने बच्चे’ के लिए कोटा का बेस्ट हॉस्टल दिलवा रहे थे.
कई लोग टॉप कोचिंग सेंटर में कम में सीट दिलाने का भरोसा दे रहे थे. यहां मैं भावी क्लाइंट थी. ग्राहक का चोला पहने हुए ही मैंने कैब की. ड्राइवर जरा संजीदा किस्म का था. मैंने पूछा तो कहा- ‘मैडम, अपना काम छोड़कर बच्चे के साथ यहां रह सकेंगी तो ही आइएगा. वरना ये शहर क्या है, मासूम दिलों की बद्दुआ है बस!’
ड्राइवर के चेहरे पर कोई भाव नहीं. सपाट चेहरे पर खोई हुईं आंखें. उससे दोबारा मुलाकात नहीं हुई, लेकिन बिल्कुल वैसा ही खोयापन अगले डेढ़ दिनों तक पूरे कोटा में दिखता रहा. गन्ना रस के ठेले पर अपने-आप में कुछ बुदबुदाते हुए बच्चे. चाय की थड़ी पर कप भूलकर किताबें खोले बच्चे. हॉस्टल के कॉमन एरिया में हुए सवालों पर 'सब बढ़िया है' दोहराते बच्चे.
बच्चों के मशीन बनने की शुरुआत 80 के दशक में हुई, जब उस समय के एक कोचिंग संस्थान से पहला बच्चा IIT में निकला. इंस्टीट्यूट रातोरात मशहूर हो गया. फिर तो एक के बाद एक कई संस्थान खुले. स्टूडेंट्स की भीड़ सैकड़ों से लाखों में बदल गई. फिर उनके लिए हॉस्टल भी बने. कैंटीनें भी खुलीं. चाय-पोहे के ठेलों से लेकर ऑटो-रिक्शा भी आए.
सबका टारगेट- 15-16 साल के बच्चे. जिनके पीछे पूरा का पूरा शहर घना-बुना जाल लेकर भाग रहा है.
हॉस्टल मालिक और अलग-अलग सूत्र बताते हैं कि इस साल कोटा में 3 लाख के करीब बच्चे आए हुए हैं. ऐसे ही स्टूडेंट्स से मिलने की कड़ी में हमारी मुलाकात आईआईटी की तैयारी कर रहे समर सिंह से होती है, जो 2 महीने पहले ही कोटा आए. इतवार का दिन, लेकिन छुट्टी की कोई छाप कहीं भी नहीं. समर कहते हैं- आज बच्चे या तो नींद पूरी करते हैं, या फिर कोचिंग में टेस्ट देने जाते हैं.
कपड़े वगैरह कब धोते हैं. और साफ-सफाई?
वो हॉस्टल स्टाफ करता है. कोचिंग में कहा जाता है कि बच्चा अगर ये सब करेगा तो पढ़ेगा कब! फिर मम्मी-पापा वही हॉस्टल खोजते हैं, जहां लॉन्ड्री भी मिले. खाना भी. हमें ‘कोई चिंता’ नहीं करनी, सिर्फ पढ़ना है.
रोज कितने घंटे पढ़ते हैं?
सुबह 06.30 बजे पहली क्लास होती है. तब से पढ़ना शुरू होता है तो रात 2 बजे तक चलता रहता है. ये कहते हुए समर अपना रुटीन बताते हैं, जिसमें सांस लेने की भी जगह नहीं. पढ़ाई के बीच दो बार ही वे बातचीत करते हैं- एक, फोन पर अपने पेरेंट्स से, और दूसरा बगल के कमरे में रहते लड़के से.
‘अगर किसी दिन थोड़ा ज्यादा सो जाऊं तो गिल्ट हो जाता है. बार-बार रोना आता है.’ बनारस से आए समर की बड़ी-बड़ी बचकानी आंखों में काशी की गलियां कहीं नहीं दिखतीं. उनकी जगह मोटी-मोटी किताबें ले चुकीं.
आईआईटी में न हो सका तो! मैं हकलाते हुए ही सवाल अधूरा छोड़ देती हूं.
अभी तो उतना ही सोचा है. लेकिन हो जाएगा. मैं मेहनत पूरी कर रहा हूं.
समर सीधे जवाब से बचते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे मैं सीधा सवाल नहीं कर पाती.
‘न हो सका तो!’ ये खयाल कोटा की हवा में झूलती वो अदृश्य तलवार है, जो कभी भी, किसी का भी गला काट सकती है. हर साल कितने ही स्टूडेंट्स लहुलुहान सपने लिए वापस लौटते हैं. कई लौट तक नहीं पाते.
कोटा में ज्यादातर कोचिंग संस्थान कुछ खास जगहों पर सिमटे हुए हैं. कुन्हाड़ी, राजीव गांधी नगर, महावीर नगर, विज्ञान नगर, जवाहर नगर ऐसे ही कुछ इलाके हैं. अब हम कुन्हाड़ी के उस हॉस्टल की तरफ बढ़ते हैं, जहां हॉस्टलों और घरों में पीजी रहते बच्चों ने खुदकुशी की थी.
मार्केट के बीच किसी कस्बाई होटल की तरह लगता बॉयज हॉस्टल, जहां मेडिकल की तैयारी करते स्टूडेंट्स रहते हैं. सामने एक छोटा-सा नाला बह रहा है, जिसे पार करने के लिए लकड़ी का फट्टा लगा हुआ. इसे फर्लांगते हुए भीतर पहुंचती हूं तो रिसेप्शन वाला लड़का फट्ट से खड़ा हो जाता है.
‘हां मैडम!’
इसी हॉस्टल के एक कमरे में दो महीने पहले एक बच्चे ने फांसी लगा ली थी. सवाल को मन में दबाते हुए मैं बच्चों से मिलना चाहती हूं.
रिसेप्शनिस्ट लड़का, जो खुद को वॉर्डन बताता है, एक फोन लगाकर कुछ खुसपुसाता है, फिर फोन मेरे हाथ में है. मेरे हैलो कहते ही वहां से तीखी आवाज आती है- नहीं मैडम. हम आपको बच्चों से नहीं मिलवा सकते. या फिर मैं आता हूं, तब मिलिएगा.
आप कब आएंगे?
टाइम लगेगा.
कितना टाइम?
पता नहीं. अभी तो लगेगा.
आगे मोलभाव करने का कोई स्कोप नहीं. फोन कट चुका. वहां से एक पीजी पहुंचती हूं जहां किसी बच्चे ने खुदकुशी की थी. मकान-मालिक बात करने को तैयार नहीं होते. पास ही कई और स्टूडेंट रहते हैं. एक कहता है- न्यूज आती है तो पेरेंट्स डर जाते हैं. फिर कई दिन तक उनका बार-बार फोन आता रहता है. समझाते हैं कि ‘लोड’ मत लेना. थोड़े दिन बाद सब ‘पहले जैसा’ हो जाता है.
पहले जैसा मतलब?
मतलब, वो फिर पढ़ाई-नंबर की बात करते हैं. कोचिंग वाले हर हफ्ते टेस्ट लेते हैं, जिसका रिजल्ट पेरेंट्स तक भी जाता है. एक बार भी नंबर कम आया तो पूछ-पूछकर परेशान कर देते हैं. कोई बात है क्या? बेटा, वहां पढ़ने गए हो. मां-बाप तुम्हारा भला चाहते हैं तभी तो इतने पैसे लगा रहे हैं.
मैं ऑथर बनना चाहता था. कहानियां लिखता. पापा ने कॉपी फाड़कर फेंक दी. मम्मी ने बात करना बंद कर दिया. अब मैं यहां हूं, डॉक्टरी की तैयारी करते हुए. नई-नई दाढ़ी-मूंछ वाले चेहरे पर उदास आंखें.
सबसे लंबी कहानी कौन सी थी?
रिश्तों पर. 81 पन्नों की थी.
अभी कोई कहानी है तुम्हारे पास?
नहीं, कॉपी फटी, उसके बाद से कुछ नहीं लिखा.
कुछ देखते होगे तो मन में कहानी उभरती तो होगी! पीछा छोड़े बिना मैं कुरेदती रहती हूं.
हां. रोज रात मेरे साथ वाले कमरे का लड़का मोबाइल की फ्लैश लाइट जलाता-बुझाता है. साथ के गर्ल्स हॉस्टल से भी एक कमरे की बत्ती जलती-बुझती है. उन्हें देखकर एक कहानी सूझी थी, लेकिन लिख नहीं सका. बनना तो मुझे डॉक्टर ही पड़ेगा. आवाज में हल्की झुंझलाहट और बहुत सारी शिकायत.
15 साल के भावी डॉक्टर की आंखों में वो कहानियां हैं, जो हमेशा के लिए अनकही रह गईं. अब वो जो भी बने, लेखक तो शायद ही बन सकेगा.
वहां से होते हुए एक गर्ल्स हॉस्टल पहुंचती हूं, जहां पहले ही बात हो चुकी है. हॉस्टल क्या, पांच सितारा होटल है. सेंट्रली एयर कंडीशंड इमारत के लाउंज को देखकर साफ पता लगता है कि किसी इंटीरियर डेकोरेटर ने इसकी सजधज पर पूरा जोर लगाया होगा. नकली फूल. बड़े-बड़े झूमर. ट्रेंडी कॉफी हाउस की तरह सोफे-मेज-कुर्सियां. सामने रिसेप्शन और कई तस्वीरें.
लैंडमार्क सिटी के सबसे बड़े हॉस्टलों में से एक में फिलहाल करीब ढाई सौ लड़कियां पढ़ रही हैं, जो मेडिकल की तैयारी में जुटी हैं. लाउंज में ही एक-एक करके मेरी कई स्टूडेंट्स से मुलाकात कराई जाती है. सबके बीच. कमरे में जाकर अकेले मिलने की इजाजत नहीं. ‘प्राइवेसी में खलल पड़ेगा. हम खुद नहीं जाते.’ फिक्र से भरे हुए ऑनर कहते हैं.
बात शुरू होते ही खत्म हो जाती है. लड़कियां हर सवाल के जवाब में ‘बढ़िया’ कहती हुईं. मैं कैमरा टटोलती हूं तो एक हाथ छूकर बोलती हैं- नहीं. वीडियो मत बनाइए. परेशानी हो जाएगी.
अब मैं गुदगुदे सोफे पर बैठकर हॉस्टल के मालिक विनोद गौतम से बात कर रही हूं. वे कहते हैं- कोविड से ऐन पहले हॉस्टल खोला. फिलहाल हमारे यहां करीब ढाई सौ बच्चियां हैं. वे लगातार कई बातें बता रहे हैं.
टाइम बीतता देख मैं सीधे सवाल पर आ जाती हूं. शहर आए इतने बच्चे खुदकुशी कर रहे हैं!
‘अपने यहां ऐसा कोई केस नहीं’- ये कहते हुए वे सामने इशारा करते हैं. ये बायोमैट्रिक देख रही हैं. लड़कियां निकलती हैं तो पेरेंट्स को पता लग जाता है. कोई शाम साढ़े 7 बजे तक न लौटे तो सीधे पेरेंट्स के पास कॉल चला जाता है.
हॉस्टल में हर तरफ नेट लगा रखा है. अगर कोई कूदे भी तो उसे वहीं पकड़ लेंगे. पंखे पर डिवाइस लगी है. वजन 10 किलो से ज्यादा हुआ तो अलर्ट आ जाएगा. हमने सब इंतजाम कर रखा है.
दरवाजे पर कई ई-रिक्शा लगे हुए हैं. ‘ये क्यों?’
अजी, ताकि लड़कियां इसी से कोचिंग जाएं और इसी में लौटें. बाजार वगैरह करना हो तो भी यही बैटरी रिक्शा उन्हें ले जाता है.
‘यहां सबकुछ बहुत सेफ है.’ वे क्लेम करते हैं.
सेफ कैसे?
बच्ची रात 10 बजे भी निकलेगी तो पकड़कर वापस भेज दी जाएगी. मुश्किल से 5 मिनट लगेगा. यहां कोने-कोने में हमारे लोग हैं. कोचिंग वालों के भी आदमी भी घूमते रहते हैं. चाय की थड़ी या पार्क में कोई कपल दिखा तो तुरंत उसकी पहचान हो जाती है. फिर हम अपने तरीके से मामला हैंडल करते हैं.
जिन इंतजामों को सामने बैठे सज्जन सेफ्टी बता रहे हैं, उसकी झलकियां पूरे शहर में दिखती हैं.
ज्यादातर कोचिंग वाले लड़के-लड़कियों का बैच अलग-अलग लगाते हैं. पूछताछ में कोई गोलमोल जवाब देता है तो कई सीधे बोलते हैं- रिलेशनशिप के कारण बहुत लड़के ‘मर-मुरा’ जाते हैं. ऐसों की छंटनी करके हम पहले ही लौटा देते हैं. क्यों पूरा माहौल ‘खराब’ करें!
हॉस्टलों से गुजरते हुए देखती हूं. कोई भी खिड़की खुली नहीं कि भीतर झांका जा सके. सारे दरवाजे मुंदे हुए. भीतर कुछ हो जाए तो घंटों तक बाहर की दुनिया को खबर भी न हो. अक्सर यही होता है.
लैंडमार्क में नाश्ते की दुकान पर खड़ा एक स्टूडेंट कहता है- सबको अलग-अलग कमरा दिया जाता है ताकि पढ़ाई बढ़िया से हो. कोई क्लास ‘मिस’ करने लगे तभी हम उसका कमरा खटखटाते हैं.
मुझे पुलिस अधिकारी की बात याद आती है- कोटा में बच्चे भले ही फ्यूचर बनाने आते हों, लेकिन ये वो शहर है, जहां भविष्य भी आकर बीत भी चुका. अब सब दोहराव है. वही कंपीटिशन, वही डिप्रेशन, वही अकेलापन और मौतें.