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Ayodhya Case: नमाज के लिए मस्जिद जरूरी या नहीं, ये कोर्ट कैसे तय कर सकता है: ओवैसी

AIMIMI चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि नमाज जरूरी है या नहीं, ये तय करने का अधिकार कोर्ट का नहीं, बल्कि धार्मिक गुरुओं का है. अच्छा होता अगर ये फैसला संवैधानिक पीठ को रेफर कर दिया जाता.

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असदुद्दीन ओवैसी. photo credit: getty images
असदुद्दीन ओवैसी. photo credit: getty images

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अयोध्या विवाद की सुनवाई में आज सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा रोड़ा साफ कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि मस्जिद में नमाज इस्लाम में जरूरी नहीं. यानी इस आधार पर दावा आज खारिज हो गया. सुप्रीम कोर्ट ने 1994 के इस्माइल फारुकी केस का पुराना फैसला बरकरार रखा है और अब इस मामले के तेजी से निपटारे की उम्मीद मजबूत हो गई है.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी का कहना है कि अगर ये फैसला संवैधानिक पीठ को रेफर हो जाता तो अच्छा होता. इस्लाम में मस्जिद एक जरूरी हिस्सा है. कुरान और हदीस में इस बात जिक्र है. अफसोस इस बात का है कि जब तीन तलाक का मसला आया तो कुरान का जिक्र किया गया और जब मस्जिद का मसला आया तो कुरान को भूल जा रहे हैं.

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ओवैसी ने कहा कि दूसरे धर्म के धार्मिक स्थल क्या जरूरी नहीं है? उन्होंने सवाल किया कि न्यायालय कैसे तय कर सकती है कि क्या जरूरी है. यह तय करने का अधिकार धार्मिक गुरुओं को है. वीएचपी और आरएसएस के मुताबिक नहीं चला जा सकता. उन्होंने आरएसएस पर तंज करते हुए कहा कि आप अपनी शाखा में रहें और तय करें कि मंदिर कब और कहां बनाना चाहिए. यह देश संविधान के हिसाब से चलता है, न कि किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं के आधार पर.

इसके अलावा ओवैसी ने आजतक के खास कार्यक्रम हल्लाबोल में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद बीजेपी के नेता यह समझ नहीं कर पा रहे हैं कि यह केस टाइटल सूट का है न कि आस्था का. उन्होंने बीजेपी नेता सुधांशु त्रिवेदी के साथ बहस में कहा कि बीजेपी की सरकार अदालत में कुछ और कहती है, टीवी बहस में कुछ और चुनावों के समय में कुछ और. ओवैसी ने कहा कि बीजेपी नेता अयोध्या पर बहस में जो दलील देते हैं वह उन्हें अटॉर्नी जनरल के जरिए सुप्रीम कोर्ट में देनी चाहिए, लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि कोर्ट ऐसी बातों को तवज्जो नहीं देता है.

सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद में नमाज की मजहबी जरूरत को हाशिए पर धकेला और उधर अयोध्या में राममंदिर की उम्मीदों को पंख लग गए. मंदिर समर्थकों को लगने लगा है कि अब वो दिन दूर नहीं जब देश की सबसे बड़ी अदालत से विवादित जमीन पर मालिकाना हक की जंग भी वो जीत लेंगे.

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बीजेपी के लिए भी ये उम्मीदें जवां करने वाला फैसला है. राम मंदिर का मसला राजनीति के कठघरे में दशकों से खडा है. गेंद अदालत के पाले में है तो मोदी सरकार भी विवाद की इस भट्टी में हाथ झुलसाने से हिचक रही है. कोर्ट का फैसला मोदी सरकार के लिए हर तरह से मुफीद होगा. जीते तो बीजेपी की जीत मानी जाएगी और हारे तो कोर्ट का फैसला बताकर पल्ला झाड़ने का रास्ता तो खुला ही रहेगा. सुप्रीम कोर्ट ने तारीख भी तय कर दी है. 29 अक्टूबर से जमीन पर मालिकाना हक के केस में सुनवाई होगी.

संकेत बता रहे हैं कि देश की सबसे ब़ड़ी अदालत भी अयोध्या विवाद को जल्द निपटाने के मूड में है. देश 2019 की चुनावी दहलीज पर खड़ा है और उससे पहले अयोध्या पर आय़ा कोई भी फैसला किसी भूचाल से कम नहीं होगा.

क्या है इस्माइल फारूकी केस?

अयोध्या में कारसेवकों ने 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी थी. इसके बाद केंद्र सरकार ने 7 जनवरी, 1993 को अध्यादेश लाकर अयोध्या में 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था. इसके तहत विवादित जमीन का 120x80 फीट हिस्सा भी अधिग्रहित कर लिया गया था जिसे बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि परिसर कहा जाता है.   

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केंद्र सरकार के इसी फैसले को इस्माइल फारूकी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए अपनी याचिका में कहा था कि धार्मिक स्थल का सरकार कैसे अधिग्रहण कर सकती है. इस पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है.

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