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पूर्व सांसदों-विधायकों के आजीवन पेंशन पर 6 मार्च तक सरकार को देना होगा जवाब

पूर्व सांसदों को आजीवन पेंशन और अलाउंस दिए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, चुनाव आयोग, लोकसभा और राज्यसभा के महासचिव को नोटिस जारी किया था.

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सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर

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पूर्व सांसदों को आजीवन पेंशन और भत्ते दिए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को केंद्र सरकार से पूछा कि पिछले 12 साल से सांसदों-विधायकों के पद से हटने के बाद आजीवन पेंशन और अलाउंस देने को लेकर जो एक स्वतंत्र मैकेनिज्म बना रहे हैं, उसका क्या हुआ?

साथ ही कोर्ट ने यह भी पूछा कि 2006 से आप इस बाबत योजना बनाने की बात अदालत में कह रहे है, अब तक आपने उसमें क्या किया? इस पर केंद्र सरकार ने जवाब दिया कि स्वतंत्र मैकेनिज्म पर अभी विचार चल रहा है. फाइनल मैकेनिज्म को लेकर केंद्र सरकार ने अपना रुख साफ करने के लिए समय मांगा. सुप्रीम कोर्ट ने दो हफ्ते की मोहलत देते हुए सुनवाई 6 मार्च तक टाल दी.

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इससे पहले पूर्व सांसदों को आजीवन पेंशन और अलाउंस दिए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, चुनाव आयोग, लोकसभा और राज्यसभा के महासचिव को नोटिस जारी किया था.

सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सांसदों को आजीवन पेंशन और अलाउंस दिए जाने के खिलाफ दायर याचिका पर जवाब मांगा था. हालांकि सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हमने वह जमाना भी देखा है, जब लंबे समय तक सांसद के रूप में सेवा करने के बाद भी कई राजनेताओं की मौत गुरबत (गरीबी) में हुई है.

लोकप्रहरी नामक NGO ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर कहा है कि पूर्व सासंदों और विधायकों को आजीवन पेंशन दी जा रही है, जबकि ये नियमों में शामिल नहीं है.

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याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि अगर एक दिन के लिए भी कोई सांसद बन जाता है तो वह ना केवल आजीवन पेंशन का हकदार हो जाता है, उसकी पत्नी को भी पेंशन मिलती है. साथ ही वह जीवनभर एक साथी के साथ ट्रेन में फ्री यात्रा करने का हकदार हो जाता है जबकि राज्य के राज्यपाल को भी आजीवन पेंशन नहीं दी जाती.

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यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वर्तमान जजों को भी साथी या सहायक के साथ मुफ्त यात्रा का लाभ नहीं दिया जाता. यहां तक की जज अगर अपनी आधिकारिक यात्रा पर ही क्यों ना हों. ऐसे में यह व्यवस्था आम लोगों के लिए बोझ है. ये व्यवस्था राजनीति को और भी लुभावना बना देती है.

असल में देखा जाए तो यह खर्च ऐसे लोगों पर किया जाता है जो जनता का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे होते हैं. इसलिए इस व्यवस्था को खत्म किया जाना चाहिए. अब देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार इस मुद्दे पर अपना जवाब फिर टालती है या फिर कोर्ट का रुख 6 मार्च को क्या रहता है.

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