जयराम रमेश का हृदय परिवर्तन हो गया. उन्होंने बस्तर में हालिया नक्सल हमलों के बाद बयान दिया है कि ये लोग आतंकवादी हैं. पहले उन्होंने कहा था कि ये लोग गलत दिशा में काम कर रहे विचारक हैं, बुद्धिजीवी हैं. मगर अब उनका स्टैंड बदल चुका है. देखें क्या है उनका ताजा बयान. रमेश कहते हैं, ‘आतंकवादी हैं ये. और क्या हैं आखिर. आप इनके बारे में क्रांतिकारी रूमानी ख्याल नहीं पाल सकते. ये अपनी हरकतों से चारों तरफ खौफ फैला रहे हैं, आतंक मचा रहे हैं’.
ये बदलाव नया और बड़ा है. रमेश कांग्रेस के उन नेताओं में से हैं जो इस मसले पर उदार रुख की वकालत करते रहे हैं. उन्होंने बार बार दोहराया था कि भारत के कई हिस्सों में सक्रिय इन संगठनों को महज लॉ एंड ऑर्डर की एक समस्या नहीं माना जा सकता. ये दरअसल एक सामाजिक आर्थिक समस्या का बाहरी चेहरा हैं. उदार सोच वाले इन नेताओं की जमात ने यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी को भी यह समझाने में कामयाबी पा ली थी कि नक्सली इलाकों में बल प्रयोग के घातक परिणाम होंगे.
इस जमात के उलट प्रधानमंत्री की बात करें, तो उन्होंने बार बार नक्सलवादी आतंक को देश के सामने मौजूद बड़ी चुनौतियों में से एक बताया है. मगर उनकी चिंता सिर्फ बयानों तक सीमित रही. उदार रुख की वकालत करने वाले नेता, जो पीएम के खास खेमे में नहीं गिने जाते, अपनी बात आधे अधूरे ढंग से मनवाते रहे. नतीजतन रणनीति के स्तर पर एक भ्रम पैदा हो गया, जो लगातार जारी है. पर ऐसा हमेशा नहीं था. जब पी चिदंबरम गृह मंत्री थे, तब केंद्र सरकार का नक्सलियों के खिलाफ सख्त रवैया दिखने लगा था. ऑपरेशन ग्रीन हंट हो या सैन्य बलों की दूसरी आक्रामक और प्रभावी कार्रवाईयां और मौजूदगी, संदेश साफ था. मगर चिदंबरम के मंत्रालय छोड़ते ही सब सुस्त हो गया, ठहरने लगा.
सुशील कुमार शिंदे के गृह मंत्री बनने के बाद सरकार का फोकस नक्सलवाद से हटकर भगवा आतंकवाद पर आ गया. विकास के जरिए नक्सलियों से लड़ने की वकालत करने वाले जयराम रमेश जमीनी स्तर पर भी सक्रिय रहे. उन्होंने नक्सल हिंसा से प्रभावित कुछ जिलों में केंद्र सरकार की स्कीमों के प्रभावी क्रियान्वन के लिए लगातार पहल की. उन्हें इन कोशिशों में काफी कामयाबी भी मिली. तब उन्हें लगने लगा कि डेवलपमेंट और डेमोक्रेसी के सहारे नक्सलवाद से निपटा जा सकता है. मगर हालिया हमलों के बाद उनके यकीन का शिराजा बिखर गया. उन्हें अपनी थ्योरी पर ही शक करना पड़ा. और ये हाल सिर्फ रमेश का ही नहीं, सरकार के दूसरे नुमाइंदों और आदिवासी हितों की लड़ाई को उदार नजरिये से देखने की बात करने वाले विचारकों का भी है.
बहरहाल, अगर हम समाधान की बात करें, तो ये चार रास्ते दिखते हैं
1. सरकार सेना और दूसरे बलों के सहारे नक्सलवादियों को कुचल दे.
2. नक्सलवादियों से बातचीत के जरिए समाधान तलाशा जाए.
3. बातचीत भी जारी रहे और सशस्त्र बलों की ठोस कार्रवाई भी.
4. विकास और लोकतंत्र के जरिए उनकी विचारधारा को खत्म कर दिया जाए.
ये चारों ही विकल्प ठीक लग सकते हैं. बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि आप किस नजर और जमीन से इसे देख रहे हैं. दिक्कत तब होती है, जब हम हिंसा करने वालों को और उनकी विचारधारा को एक ही चश्मे से देखने लगते हैं. इस गड़बड़झाले के चलते नक्सलवादियों के खिलाफ हमारी लड़ाई अस्थिर और कमजोर हुई है. हथियारों के दम पर घुसपैठियों को, हिंसा करने वाले को मार गिराया जा सकता है, मगर उस मानसिक दशा, उस विचार, उसको मानने वाले समूह को नहीं. ऐसा ही होता है. कुछ लोग मर जाते हैं, उनकी जगह दूसरे जाते हैं, विचार कायम रहता है और मजबूत होता जाता है.
माओवादी ये बात समझते हैं और इसीलिए जो भी सरकारी स्कीम लोगों तक पहुंचती दिखती है, उसकी राह में रोड़े अटकाने लगते हैं. सड़कें माइन लगाकर उड़ा दी जाती हैं, स्कूलों की बिल्डिंग तोड़ दी जाती हैं और संचार के दूसरे तरीकों को भी पनपने नहीं दिया जाता. अगर तोड़फोड़ नहीं भी होती, तो निर्माण होने देने के नाम पर नक्सली लेवी वसूलते हैं. सरकारी इमारत बनानी हो या फिर जंगल का ठेका उठाना हो, उन्हें कट दिए बिना काम नहीं बनता. और सिर्फ निजी ही नहीं, सरकारी तंत्र भी इस आदेश का पालन करता दिखता है.करो तो भरो और मरो, नहीं करो, तो भी यही हाल. ऐसे में इन इलाकों के लिए पारित होने वाले, या जमीन पर क्रियान्वित भी होने वाले विकास कार्य लोगों का विकास करें या नहीं, माओवादियों का विकास जरूर करते हैं.
एक मसला ये भी है कि अगर बातचीत की भी जाए, तो किससे. माओवादियों के इतने सारे समूह हैं, जो कभी साथ तो कभी अलग खड़े दिखते. कई बार आपस में भी टकराते. इस विचारधारा के नाम पर, जल जंगल जमीन के नाम पर कई ठगों, गुंडों और अपराधियों के गिरोह भी पनप चुके हैं. इससे भी बढ़कर दिक्कत यह है कि हिंसा के जरिए बदलाव लाने का सुर अलापते ये समूह भारत के संविधान को भी नहीं मानते. उनकी बात की शुरुआत ही इस तंत्र को उखाड़ फेंकने से होती है. तो फिर ये तंत्र उनसे बात कैसे करे.
एक सैद्धांतिक विकल्प हैं ज्यादा डेवलपमेंट और उसके सहारे और ज्यादा डेमोक्रेसी लाने का. यह विचार, रणनीति या तरीका सही और शांतिपूर्ण लगता है. मगर माओवादी ऐसा होने नहीं देंगे. वे जिन इलाकों पर काबिज हैं, वहां से उखड़ जाएंगे, अगर लोकतंत्र और विकास की सच्ची दस्तक हो गई.
तो फिर क्या किया जाए. क्या माओवाद और माओवादियों को अलग-अलग दुश्मनों के तौर पर देखा जाए. माओवाद या नक्सलवाद बढ़ा है क्योंकि देश के एक हिस्से में आदिवासियों, दलितों और ग्रामीणों तक विकास और लोकतंत्र नहीं पहुंचा है. लोगों को राज्य के होने पर, उसकी मंशा पर और उसकी ताकत पर यकीन नहीं है.
ये वे लोग हैं, जो उन इलाकों में रहते हैं, जहां राज्य की विकास और न्याय के जरिए मौजूदगी नहीं दिखी है. तो ऐसे में जिम्मेदारी राज्य की बनती है, कि वह अपनी लोक कल्याणकारी छवि को सही साबित करे. आदिवासियों तक सड़क, शिक्षा, रोजगार, न्याय पहुंचाया जा सके. उन्हें भारत का हिस्सा, अभिन्न हिस्सा होने का एहसास कराया जाए. उनकी चिंताओं को हमारी चिंता बनाया जाए.
जब
आदिवासियों को ये लगने लगेगा कि राज्य के साथ, तंत्र के साथ खड़े होने में
ही उनका फायदा है, उनकी तरक्की है, बागियों का चोला पहने नक्सलियों के साथ
में नहीं, तो हालात भी बदल जाएंगे और समस्या का हल भी मिल जाएगा.
और ये माओवादियों को नहीं, माओवाद को जवाब होगा, उसका समाधान होगा. मुल्क
में माओवादियों को देखनी होगी स्टेट की पूरी ताकत. स्टेट को साफ शब्दों और
कर्मों से उन्हें ये समझा देना होगा कि जब तक बंदूक हाथ में थामे रहोगे, बात नहीं
होगी.
बात करनी है, तो बात करो, गोली मत चलाओ. गोली चलानी है,
तो गोली चलाओ, बात मत करो.