वो होली का दिन था और हम सबने जमकर होली खेली थी, खैर ये कोई बड़ी बात नहीं है हम तो हमेशा ही जमकर होली खेलते हैं. वो साल 2010 की होली थी और होली के रंग का असली मतलब तो उसी होली में समझ में आया था. अब यहां सवाल उठता है कि अब तक होली के रंग का असली मतलब क्या हम नहीं समझते थे, इमानदारी से इसका जवाब दिया जाए तो वह 'नहीं' होगा. क्योंकि उस दिन पहली बार मैंने मोहम्मद उमर को होली खेलते देखा था.
होली खेलने के बाद फुर्सत के लम्हों में घर पर बैठा था और हमारे चाचा को कहीं जाना था, सो मैंने कहा कि चलो मैं भी चलता हूं. उन्हें अपने ढाबे के लिए चिकन लेना था सो दिल्ली के कल्याण पुरी में एक चिकन की दुकान पर पहुंच गए. अभी चिकन तोला ही जा रहा था कि उसी दुकान के ऊपर बने पहले माले से आवाज आई 'मोहम्मद उमर ... अरे मोहम्मद उमर, घर आजा.' यह सुनते ही मेरी पहली नजर उस मां की तरफ गई जो अपने बेटे को घर बुला रही थी और दूसरी उस तरफ जिस तरफ मोहम्मद उमर था. उमर को देखकर मन खुश हो गया, क्योंकि हाथ में पिचकारी लिए, लाल-पीला चेहरा और दोस्तों के पीछे रंग लगाने के लिए भागता फिर रहे लड़के का नाम था उमर. उमर की उम्र वैसे तो मैं नहीं जानता, लेकिन अंदाजा लगा सकता था कि वह कोई 6-7 साल का रहा होगा.
इसी खुशी में अब एक बार फिर मेरी नजर उसकी मां की तरफ गई, लेकिन उन पर होली का कोई असर नहीं था. ठीक यही हाल चिकन बेच रहे उन साहब का था, जो संभावत: मोहम्मद उमर के पिता होंगे. उसकी मां के साथ एक और युवा लड़की खड़ी थी, उस पर भी होली का कोई निशान नहीं था. कुल मिलाकर अकेला मोहम्मद उमर ही था, जिसने पूरे घर में होली खेली थी. उमर खुश भी बहुत था, हो भी क्यों नहीं... भई दोस्तों के साथ इस तरह से रंगों में सराबोर होना किसे नहीं अच्छा लगता. बात मजहब की नहीं है, बात है हमारी समझ की. जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं और भी नासमझ होते जाते हैं. हो सकता है बचपन में मोहम्मद उमर के पिता ने भी होली खेली हो और मां भी होली के रंगों में रंगी हो. लेकिन जैसे-जैसे वे दुनियादारी की नजर में समझदार होते गए, दुनिया ने उनकी जिन्दगी से होली के रंग छीन लिए और मजहब के रंगों में रंग दिया.
क्या आपको याद है कैसे हम लोग बचपन में मिलकर रंगों में सराबोर हुआ करते थे और ईद पर दोस्तों के घर जाकर सेंवईयों का मजा लेते थे. अब हम दूसरे मजहब के त्योहारों का मजा नहीं ले पाते, क्योंकि अब हम 'समझदार' हो गए हैं और इंसानियत हमसे दूर हो गई है. इसलिए आज दिल करता है कि क्योंकि नहीं हम हमेशा मोहम्मद उमर ही बने रहते. इस बात पर जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल याद आती है - 'ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी. मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी.' मोहम्मद उमर अपनी उस मासूमियत को हमेशा बनाए रखना, तुम शरीर से भले ही बड़े हो जाओ, लेकिन दिल-दिमाग से कभी बड़े मत होना. क्योंकि जिस दिन तुम दिल-दिमाग से बड़े हो जाओगे, उस दिन ये दुनियावाले तुम्हारी जिन्दगी से भी होली के रंग छीन लेंगे.