आतंकी सैयद अब्दुल करीम टुंडा के मन में एक रंज था. एक क्या, कई रंज थे. उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद स्थित पिलखुआ का रहने वाला यह बढ़ई अस्सी के दशक के आरंभ में अहमदाबाद और मुंबई में हुए कई दंगों का गवाह था और उसने अपनी आंखों के सामने अपने एक रिश्तेदार और तीन अन्य मुसलमानों को जिंदा जलाए जाते देखा था.
कहा जाता है कि शायद उस समय उम्र के तीसरे दशक के आखिरी वर्षों में चल रहे इस शख्स को इन्हीं घटनाओं ने हद पार करने के लिए उकसाया. उसने तय किया कि इस नाइंसाफी का बदला वह जरूर लेगा. उसने जेहाद करने की ठानी. इस सिलसिले में उसने अरबी सीखी, मुसलमान युवकों को कट्टरता की दीक्षा दी और बम बनाने के कई प्रयोग किए. हालांकि उसे तकरीबन एक दशक तक इंतजार करना पड़ा और तब जाकर वह लश्कर-ए-तय्यबा से जुड़ पाया और इस तरह आतंक की संगठित दुनिया का हिस्सा बन गया.
2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों से उबल रहे और अपने भीतर पल रहे पुराने गुस्से से पक चुके कोलकाता, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ मुस्लिम नौजवानों ने प्रतिशोध में हिंसा करने का फैसला किया. इन्हीं का गुट बाद में इंडियन मुजाहिदीन (आइएम) के नाम से जाना गया . लगभग ऐसी ही कहानी महाराष्ट्र के शाह मुदस्सर और अहमद खान की है. कहते हैं कि ये दोनों सोशल नेटवर्किंग पर कई आइडी के साथ सक्रिय थे और भारत में कथित तौर से इस्लामिक राज्य की स्थापना करना चाहते थे. संयोगवश हैदराबाद पुलिस को उनकी योजनाओं का पता लग गया और वे पकड़ लिए गए.
खुदमुख्तार आतंकी
भारत में आतंकवाद के संक्षिप्त इतिहास में मुनवाद सलमान, शाह मुदस्सर, शोएब अहमद खान, अरीब मजीद और उनके दोस्त खुदमुख्तार आतंकियों की नई पीढ़ी के नुमाइंदे हैं. यह पीढ़ी भले ही डिजिटल दौर की पैदाइश है लेकिन उनके भी अपने-अपने रंज हैं, चाहे वे वास्तविक हों या नहीं, और ये लोग अपनी रंजिशों का हिंसक बदला लेने की ख्वाहिश रखते हैं.
टुंडा के मुकाबले देखा जाए तो ये युवक पर्याप्त जागरूक हैं, दुनिया से जुड़े हुए हैं, पर्याप्त कुशल और शिक्षित हैं और इन्हें अपने शैतानी इरादों को पूरा करने की जल्दी भी है. ये यह इंतजार नहीं करेंगे कि कोई आतंकी गुट इन्हें पहचाने और आकर प्रशिक्षित करे. ये अपनी पसंद के गुट और संरक्षक की तलाश खुद कर लेंगे, ऑनलाइन उससे संपर्क कायम करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि तबाही बरपा करने के लिए इन्हें क्या-क्या सीखने की जरूरत है.
जरूरत पडऩे पर ये युवा दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी ठिकानों अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक और सीरिया तक उड़कर जाने में नहीं हिचकते ताकि उन्हें वह हुनर हासिल हो सके, जिसकी उन्हें जरूरत है. सुरक्षा एजेंसियों और आतंक के जानकारों ने इनके कई नाम रखे हैं जिनमें “आजाद आतंकी” (लोन वुल्फ/वुल्व्ज) सर्वाधिक प्रचलित हुआ है.
हार्वर्ड युनिवर्सिटी के कनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट में इंटरनेशनल सिक्योरिटी प्रोग्राम के रिसर्च फेलो प्रोफेसर अजीम इब्राहिम ने 2008 में ही लिखा था, 'इस फ्रीलांस आतंकवाद के निहितार्थ बहुत गहरे हैं.” यह वह समय था जब पश्चिमी देशों को इस चलन की भनक लगना शुरू ही हुई थी. वे लिखते हैं, ''फ्रीलांस आतंकी बड़ी आसानी से सरहदों को पार कर सकते हैं, अपनी इच्छा के मुताबिक जुड़ सकते हैं और बिखर सकते हैं और उनके बीच समन्वय दूर से ही किया जा सकता है. ऐसे कट्टरपंथी जरूरी नहीं है कि आपस में कभी मिले हों लेकिन वे ऑनलाइन अपनी प्रेरणाएं, योजनाएं आदि साझ कर सकते हैं. इसमें निर्णायक अंतर यह है कि किसी भी आतंकवादी की जगह कोई और आतंकवादी ले सकता है. यानी किसी भी आतंकवादी गुट का निर्णायक तौर से खात्मा नहीं किया जा सकता.'
कौन आतंकी
एक अन्य समानता जिसके बारे में सभी सुरक्षा एजेंसियां और आतंकवाद के विशेषज्ञ सहमत हैं वह उस फर्क के बारे में है जो प्रौद्योगिकी से आया है. फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग और चैटरूम पर अपनी चरमपंथी विचारधारा से भरे संदेश पोस्ट करने से लेकर प्रॉक्सी सर्वरों के माध्यम से संपर्क बनाने तक, सॉफ्टवेयर की मास्किंग से लेकर पीयर टु पीयर नेटवर्क बनाने और अज्ञात बने रहकर आपस में संवाद करने तक इस नए आजाद आतंकी के पास आज ऐसे तमाम किस्म के विकल्प मौजूद हैं जिससे वह सुरक्षा एजेंसियों के रडार से दूर बना रहता है और अपनी साजिशों को अंजाम दे सकता है. यह इस हद तक है कि सुरक्षा अधिकारी टेक्नोलॉजी को अब आतंकवादियों का नया हथियार बताने लगे हैं.
स्पेशल सेल के अधिकारियों ने इंडिया टुडे को बताया कि इंजीनियरिंग के छात्र होने के नाते ये तीनों लड़के नेट में दक्ष थे और वैश्विक घटनाओं, खासकर मुसलमानों की स्थिति को लेकर खासे संजीदा रहते थे. इन्होंने अफगानिस्तान में नाटो बलों के खिलाफ लडऩे की अपनी इच्छा जताई थी और वे इतने उत्साही थे कि जब भी वे अपने आकाओं से चैट करते, बार-बार कोई टास्क दिए जाने की गुजारिश करते थे. इनसे पूछताछ में पता चला कि वे पुष्कर में विदेशी सैलानियों पर खुद हमला करने की योजना बना रहे थे और बम बनाने के लिए इन्होंने कथित तौर पर कच्चे माल का इंतजाम भी कर लिया था.
समय के साथ कदमताल
कट्टरपंथी युवकों की महत्वाकांक्षाओं को आकार देने में प्रौद्योगिकी अगर मदद कर रही है तो आतंक का कारखाना भी अब अत्याधुनिक होता जा रहा है. कराची से आइएम को चलाने वाले इकबाल भटकल के पास पाकिस्तान के भारत विरोधी आतंकी गुटों की तरह बहुत सुविधाएं मौजूद नहीं हैं.
पिछले साल मार्च में नेपाल की सीमा से पकड़े गए पाकिस्तान के दो आतंकियों अब्दुल वलीद और फहीम से की गई पूछताछ में सामने आया था कि भटकल निंबज्ज जैसे चैट ऐप के माध्यम से अपने सारे रंगरूटों के साथ संवाद में बना रहता है और उन्हें उसने सिर्फ मोबाइल फोन और फर्जी पहचान पत्र मुहैया कराए हैं. खुद उसके पास सुविधाओं के नाम पर बस एक कमरा है जिसमें कंप्यूटर लगे हैं और प्रत्येक एक या दो मॉड्यूल से संबद्ध है. उसके गुट के पास प्रशिक्षण देने की अपनी सुविधाएं मौजूद नहीं हैं.
हालांकि भटकल ने इन दोनों को अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर बरामचा नाम के कस्बे में प्रशिक्षण शिविरों में भेजा था. फहीम ने जांचकर्ताओं को बताया था कि उसे बताई गई बातों के मुताबिक मुफ्त जिंदा कारतूस नहीं दिए गए थे जिससे उसे काफी निराशा भी हुई थी. उसे कहा गया कि उसे इसके लिए पैसे चुकाने होंगे. उनसे पूछताछ में पता चला है कि ये शिविर ऐसे किसी भी आजाद आतंकी को प्रशिक्षण देने का काम करते हैं जो सही माध्यम से उनके पास आता है.
जेहादी प्रचार को टक्कर देने वाली दिल्ली की एक वेबसाइट न्यू एज इस्लाम के संचालक सुलतान शाहीन कहते हैं कि इसका समाधान समुदाय के भीतर ही मौजूद है क्योंकि इस्लाम की उन व्याख्याओं को गलत करार देना कहीं ज्यादा आसान है जो हजारों मासूमों के कत्ल का सबब बनती हैं. वे कहते हैं, 'कई देशों ने विश्वसनीय धर्मगुरुओं और कानूनी जानकारों का इस्तेमाल किया है जो हिंसक जेहाद और भ्रम में पड़े जेहादियों से अलग रहने का प्रचार करते हैं.'
आजाद और खुदमुख्तार आतंकियों के खिलाफ जंग अभी शुरू ही हुई है. देश के बाहर से आने वाले खतरों को पहचानने और उनसे निबटने के अतिरिक्ïत सशक्ïत सुरक्षा तंत्र वाली देश की नई सरकार को भीतर भी देखने की जरूरत है ताकि एक समग्र रणनीति तैयार की जा सके- जिसमें राज्य और नागरिक समाज, दोनों की सहभागिता हो और इस समस्या से निबट कर इसे दूर किया जा सके. ऐसा इसलिए भी क्योंकि हमेशा आप किसी घटना में विदेशी हाथ के होने की सहूलियत नहीं खोज सकते.