ये तस्वीर बहुत-कुछ कहती है. एक महिला की बेबसी, एक पुरुष की ढीठता या थोड़े बड़े कैनवस पर देखें, तो दिल्ली के पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सच्ची तस्वीर, उसकी असल सूरत...
क्या वाकई 'महिलाओं के लिए' कहलाने वाली सीट महिला की हो पाती है? पब्लिक ट्रांसपोर्ट में, बसों में जीपीएस या होमगार्ड की तैनाती तो दूर की बात है, क्या महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर ही उन्हें बिना कहे जगह मिल जाती है, यह भी बड़ा सवाल है.
हिंदुस्तान में महिलाओं का अनुपात, 6 कोच वाली मेट्रो में एक लेडीज कोच का अनुपात, 60-70 सीटों वाली बसों में 4 सीट महिलाओं का अनुपात, संसद में 33 फीसदी हिस्सेदारी का अनुपात, इस पर बहस तो तब होगी, जब ये सीटें भी महिलाओं को सम्मान के साथ मिल जाएं.
इस एक तस्वीर ने सच को साफ-साफ सामने ला रखा है. हो सकता है कि इस तस्वीर में दिख रही महिलाएं बस अगले स्टेशन पर उतरने ही वाली हों, लेकिन अगली आने वाली महिला क्या बिना इल्तजा के अपनी सीट पा लेगी और ये बैठे पुरुष सहज ही सीट ऑफर कर देंगे, इसमें संदेह हैं. यही संदेह धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते पब्लिक ट्रांसपोर्ट में महिलाओं को असुरक्षित बना देता है.
इसी बात की तस्दीक करता है एक सर्वे. ट्रैवल पोर्टल ट्रिपएडवाइजर के सर्वे के मुताबिक, 'दिल्ली ने देश के टॉप 10 शहरों में सबसे असुरक्षित शहर के तौर पर अपनी कुख्यात छवि बरकरार रखी है. इससे पहले भी दिल्ली को इस सर्वें में असुरक्षित माना गया है. सर्वे में शामिल 95 फीसदी महिलाओं ने यह राय दी.'