यूपी के उन्नाव जिले के डौंडिया खेड़ा रियासत के जिस किले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग खजाने की खोज के लिये खुदाई कर रहा है वो खजाना राजा राव रामबख्श सिंह का नहीं बल्कि उनके पूर्वज महाराज त्रिलोक चंद का है. इसकी वजह यह है कि राजा राव रामबख्श ने यहां सिर्फ आठ साल राज किया था.
दरअसल यह खजाना सोलहवीं शताब्दी में यहां राज करने वाले महाराज त्रिलोक चंद ने जुटाया था. यह खजाना मंदिर के पीछे स्थित टीले मे हो सकता है, जहां एक समय रामबख्श के पिता बाबू बंसत सिंह का बैठका हुआ करता था.
साथ ही ये खजाना किले की दिवारों में भी हो सकता हैं. इस खजाने का एक नक्शा भी है, जिसे राजा रामबक्श ने अपनी मां के पास छोड़ दिया था. रामबक्श की मां फतेहपुर रियासत की थीं.
ये सारे दावे डोंडियाखेड़ा रियासत के जमींदार विशेश्वर सिंह के बेटे प्रोफेसर लालअमरेन्द्र सिंह का है, जो अब लखनऊ में रहते हैं. अमरेन्द्र सिंह के पिता विशेश्वर सिंह ने 1924 में लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज से एमबीबीएस की डिग्री ली थी और वहीं डौंडियाखेडा में डाक्टरी की प्रैक्टिस करते थे. इन्हें रामबक्श ने जमींदार बना दिया था.
डौंडिया खेड़ा रियासत और यहां के आखिरी राजा रावरामबक्श सिंह का इतिहास
इस रियासत का इतिहास शुरु होता हैं साल 1194 में, जब कुतुबुद्धीन ऐबक ने कन्नौज के राजा जयचंद सिंह पर हमला किया था. उस हमले में जयचंद के सेनापति केशव राय मारे गये थे.
केशव राय के दो बेटे थे, अभय चंद और निर्भय चंद. कन्नौज युद्ध के बाद ये दोनों भाई अपने ननिहाल पंजाब चले गये. 1215 में ये दोनों भाई वापस उन्नाव आए. तब वहां अरगल राज्य था. उस दौरान पठानों ने अरगल पर हमला किया. इस हमलें से दोनों भाइयों नें अरगल राज्य की रानी और उसकी बेटी को बचाया था.
लेकिन इस लड़ाई में निर्भय चंद मारे गये. इसी के तुरंत बाद 1215 में अरगल महाराज ने अपनी बेटी की शादी अभय चंद से कर दी और अभय चंद को गंगा पार का इलाका दे दिया.
इससे पहले डौंडिया खेड़ा में जिसे संग्रामपुर के नाम से भी जाना जाता हैं, यहां पर भर जाति के लोग राज्य करते थे. अभय चंद के पोते सेठू राय ने भरों का किला जीता और यहां अपना राज्य बसाया. इसे बैसवारा राज्य के नाम से भी जानते हैं.
इसका उल्लेख अंग्रेज कलेक्टर इलियट की किताब 'क्रोनिकल्स ऑफ उन्नाओ' में मिलता है, जोकि 1881 में कानपुर का कलेक्टर हुआ करता था.
बाद में अभय चंद के वंशज महाराजा त्रिलोक चंद यहां के प्रतापी राजा हुए, जिन्हें इस इलाके में वैश्यों का सबसे प्रतापी राजा कहा जाता था. त्रिलोक चंद दिल्ली सल्तनत के बादशाह बहलोल लोदी से जुड़े हुये थे. इनके अलावा मैनपुरी के राजा सुमेर शाह चौहान भी बहलोल लोदी से जुडे हुये थे. त्रिलोक चंद का राज्य उन्नाव के अलावा बहराइच, बाराबंकी, लखीमपुर खीरी और कन्नौज तक फैला हुआ था. ऐसा माना जाता है कि यह बड़ा खजाना त्रिलोक चंद का ही है.
राजा रावरामबक्श इस रियासत के आखिरी राजा थे, जिन्होने केवल आठ साल राज्य किया.
1857 की गदर के बाद राजा रामराव बक्श बनारस भाग गये. इस दौरान अंग्रेजों नें डौंडिया खेड़ा किले पर दो बार हमला किया. एक बार जून 1857 में और दूसरी बार नंवबर 1858 में. इस हमले में तोपों से किले को तहस-नहस कर दिया गया. हालांकि अंग्रेज खजाने को नहीं पा सके.
रामबक्श की दो रानियां थीं और उन दोनों से उन्हें कोई औलाद नहीं थी. बड़ी रानी कालाकांकर थी और छोटी रानी नाइकिन. गदर के बाद दोनों वहां चली गईं और दोनों की मृत्यु वहीं हुई.
राजा रामबक्श बनारस भाग गये और संन्यासी का रुप धारण कर लिया. अंग्रेजों ने इस रियासत के दो हिस्से किये. पहला हिस्सा मरारमउ के राजा दिग्विजय सिंह को दिया और दूसरा हिस्सा मौरावां को, जोकि डौंडिया खेड़ा के खजांची हुआ करते थे.
तब कानपुर कैंट अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी और माना जाता है कि खत्री अंग्रजों को रसद सप्लाई करते थे. इन्होंने भी बाद में राजा रावराम बक्श के बारे में अंग्रेजों को सूचना दी थी.
अक्टूबर 1859 में राजा राव रामबक्श पकड़े गये और 28 दिसंबर 1859 को अंग्रेजों ने इन्हें बक्सर के पास फांसी दे दी, जहां पर बाद में सरकार ने एक पार्क बनवा दिया.
किले के पास जो मंदिर है उसे राजा रामबक्श ने ही बनवाया था. लेकिन मंदिर के शिखर की स्थापना और मूर्ति स्थापना 1932 में जमींदार विशेश्वर सिंह ने कराई थी.
राम बक्श की मां फतेहपुर जिले के आजमपुर की थीं. यहां के बारे में भी बाबा सोभन सरकार ने ये दावा किया है कि खजाने का एक हिस्सा वहां भी गड़ा है. माना जाता है कि रामबक्श ने खजाने का विवरण अपनी मां को बताया था.
प्रोफेसर लाल अमरेन्द्र सिंह के मुताबिक खजाने की खोज के लिये इसके पहले भी खुदाई हो चुकी है, जिसे मुरारमऊ के राजा शिवप्रसाद सिंह ने कराया था.
प्रोफेसर अमरेन्द्र सिंह का कहना है कि खजाने का एक बड़ा हिस्सा मंदिर के पीछे मौजूद टीले में हो सकता है. क्योंकि वहां राजा रामबक्श के पिता बसंत सिंह की बैठक हुआ करती थी. उन्होंने कहा कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लोग खुदाई के लिये आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, जिसमें एक सैटेलाइट के द्धारा जमीन के अंदर छुपे मेटल का पता लगाया जाता है. दूसरी तकनीक जाइगर काउंटर है, जिसके जरिये जमीन के अंदर छुपे मेटल का पता लगाया जाता है.