लश्कर ए तैयबा के बम विशेषज्ञ अब्दुल करीम उर्फ टुंडा को 12 साल की उम्र में ही विस्फोटक आकर्षित करने लगे थे. टुंडा को बम बनाने में कितनी दिलचस्पी थी, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसका बायां हाथ बम बनाते समय हुए हादसे में कट गया था और इसके बाद ही उसे ‘टुंडा’ उपनाम मिला.
दिल्ली के दरियागंज इलाके में पैदा हुए टुंडा ने जांचकर्ताओं को बताया कि जब वह 10-12 साल का था तो एक व्यक्ति साइकिल पर सवार होकर चूर्ण बेचने आया करता था. वह बच्चों को आकर्षित करने के लिए एक जादू दिखाया करता था.
एक पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘टुंडा ने हमें बताया कि विक्रेता एक छड़ी पर थोड़ा चूर्ण और सफेदी (सफेद पदार्थ) रखता था और एक विशेष द्रव्य से छूते ही इसमें आग लग जाती थी’ अधिकारी ने बताया कि इससे हर कोई मंत्रमुग्ध हो जाता था, लेकिन टुंडा इस जादू के पीछे का कारण पता लगाने का जिज्ञासु था. उसे बाद में पता चला कि पोटाश पर सफेदी (चीनी) रखी जाती थी और द्रव्य एक प्रकार का एसिड था. तीनों के एकसाथ मिलने पर आग लग जाती थी.
महाराष्ट्र के भिवंडी में हुए साम्प्रदायिक दंगों में टुंडा के कुछ संबंधियों की मौत के पश्चात उसने जेहादी ताकतों के साथ 1985 में हाथ मिलाया. वह वापस हमला करना चाहता था. उसने पुराने जादू को याद करते हुए चीनी, पोटाश और सल्फ्यूरिक एसिड के साथ प्रयोग करना शुरू किया.
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘उसने प्रयोग करते-करते अंतत: बम बनाना सीख लिया. बाद में मुंबई में टुंडा की मुलाकात जलीस अंसारी से हुई और फिर उससे दोस्ती हो गई. टुंडा ने अंसारी को बम बनाना सिखाया और फिर वह ‘डॉ. बम’ कहलाने लगा.’ टुंडा और अंसारी ने अपनी तंजीम बनाई जिसका नाम ‘तंजीम इस्लाह उल मुसलमीन’ (मुसलमानों के उत्थान के लिए इस्लामी सशस्त्र संगठन) रखा गया. पुलिस ने बताया कि टुंडा और अंसारी ने 1993 में मुंबई और हैदराबाद में कई विस्फोट किए और इसके अलावा अलग-अलग रेलगाड़ियों में सात बम विस्फोट किए. जनवरी 1994 में अंसारी की गिरफ्तारी के बाद टुंडा ढाका भाग गया.
वह ढाका से भारत लौटा और 1996-98 में घातक विस्फोट किए. दिल्ली में 1996-98 के दौरान लगभग सभी विस्फोटों में टुंडा के पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों ने इसे अंजाम दिया.