पहले यह चर्चा दबे-छुपे स्वर में होती थी कि नई दिल्ली में सत्ता के दो केन्द्र हैं और इनमें जोर-आजमाइश की वजह से कई बड़े फैसले नहीं लिये जा सके या विवादास्पद फैसले लिये गए. लेकिन अब यह बात खुलकर सामने आ ही गई. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तत्कालीन मीडिया सलाहकार डॉक्टर संजय बारू की नई किताब 'द ऐक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर'ने सारी पोल खोल दी. उन्होंने कई हैरतअंगेज बातों का खुलासा किया है.
यह किताब साफ तौर से बताती है कि हांलाकि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, लेकिन सरकार सोनिया गांधी ही चलाती थीं. इसमें कई चौंकाने वाली बातें भी हैं. मसलन मनमोहन सिंह को बताए बगैर वित्त मंत्रालय प्रणब मुखर्जी को दे दिया गया, ए राजा को उनके विरोध के बावजूद मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, एटमी मुद्दे पर पीएम इस्तीफा देने को तैयार हो गए थे, वरिष्ठ मंत्री उनकी बातें नहीं सुनते थे, वगैरह-वगैरह.
इसी तरह की कई परेशान करने वाली बातें इस किताब में है जैसे सोनिया गांधी ही हर महत्वपूर्ण फाइल पर निर्णय लेती थीं. ये सभी खुलासे चुनाव अभियान में उतरी हुई कांग्रेस पार्टी के सूत्रधारों की नींद हराम कर सकती हैं. यह किताब यह भी बताती है कि देश के सबसे बड़े नौकरशाहों में से एक पुलोक चटर्जी दरअसल सोनिया गांधी को हर बात बताते थे जबकि वह पीएम के कार्यालय में थे.
बेशक इस किताब की टाइमिंग पर उंगली उठाई जा सकती है और कहा जा सकता है कि बिक्री बढ़ाने के लिए इसे इस वक्त रिलीज किया गया है. या फिर किसी खास इरादे से इसे छापा गया है. लेकिन उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि इन बातों में दम है क्योंकि ये काफी समय से हवा में तैर रहीं थीं. अगर ऐसा हुआ तो उसका परिणाम आज कांग्रेस पार्टी देख रही है.
कल तक सत्ता पर काबिज यह पार्टी जनता के सामने कितनी रक्षात्मक है. चुनाव के परिणाम चाहे कुछ भी हों, यह खुलासा लंबे समय तक उसके लिए परेशानी का सबब बना रहेगा. यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ एक क्रूर मजाक जैसा है जिसमें एक प्रधानमंत्री हर निर्णय के लिए किसी और के आदेशों की बाट जोह रहा है. प्रधानमत्री सर्वोपरि होता है और उसे खुद फैसले लेने का हक है, ऐसा हम वर्षों से सुनते आए हैं लेकिन इस किताब ने इस बात की हवा निकाल दी है. एक प्रधानमंत्री जिसने वित्त मंत्री के तौर पर बेशुमार प्रसिद्धि कमाई, अपने नए असाइनमेंट में कितना लाचार हो गया. और इसका नतीजा पूरे देश ने पॉलिसी पैरालिसिस के रूप में झेला.
बड़े-बड़े फैसले महीनों तक नहीं हो पाए, योजनाएं बनीं तो उनका समुचित कार्यान्वयन नहीं हुआ और उन सबसे बढ़कर यह पता नहीं चलता है कि किसी खास मुद्दे पर सरकार का क्या रुख है. यह सब दुखद है और भारतीय लोकतंत्र के माथे पर एक कलंक जैसा है.