जिन्होंने नौ साल पहले उन्हें अनाड़ी समझा था वह अपनी नाड़ी जंचवा रहे होंगे, ये देखकर कि मनमोहन खिलाड़ी निकले. राजनीतिक नहीं आर्थिक मामलों के जानकार हैं और राजनीति के कोल्हू में ऐसे पिरेंगे कि उनका तेल निकल आएगा. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने अर्थव्यवस्था का अनर्थ भले कर दिया पर राजनीति के कोल्हू से नौ मन तेल निकाला और राधा नाच उठी कल रात उनके दूसरे कार्यकाल की चौथी सालगिरह की पार्टी में.
कहा जाता था जो देश ही बमुश्किल चलता हो, वहां सत्ता के दो केंद्र नहीं चल सकते. इस नौसिखिए को तो नौ सौ चूहे खा चुके बिलाड़ चट से हजम कर जाएंगे. मनमोहन इन चिंतकों की चिंता सुनते और कोना भर मुस्कुराते. ऐसी गर्भित मुस्कान कि महात्मा बुद्ध देख लें तो उन्हें गर्व हो. क्योंकि वह जानते थे कि केंद्र तो एक ही होता है, और बाकी सब उस केंद्र के इर्द-गिर्द है. बंगला नम्बर 10, जन के नाम पर बने पथ पर.
गठिया बात
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन संयुक्त नहीं है, प्रगतिशील रहा नहीं और बंधन गांठों से भरा है. कुल मिलकर मृतप्राय है. सहयोगी भी इसे घोटालों का गठबंधन बुलाते हैं पर बंधक बने रहे हैं. विरोधी विरोध करते रहे, क्रोधी क्रोध करते रहे. अन्ना हजारे आए, भूखे रहे, भरोसा किया और मुंह की खाई. अरविंद केजरीवाल मुन्नाभाई की तरह लगे हैं. टेलीकॉम, कोलगेट, कॉमनवेल्थ गेम्स होते रहे मानो सरकार जहां भी हाथ डालेगी मुंह काला कराएगी. कोलगेट एक ऐसा गेट था, जो सीधे प्रधानमंत्री के दफ्तर में खुला. थोड़ी शिकन भी आई जबीं पर जब कान पर जूं रेंगा, पर ज्यूं-ज्यूं वक़्त बीता, नए दाग पुराने को छुपा गए.
जनता कितनी भी ब्राह्मी का चूरन चख ले, याददाश्त तो अगले भ्रष्टाचार के उजागर होने तक ही साथ देती है. डोर सुलझाते रहे, सिरा नहीं मिला और नौ साल में सब बातें पुरानी लग रही हैं.
नौ के नश्तर
पार्टी प्रधानमंत्री के साथ हमेशा खड़ी रही, क्योंकि पार्टी का दामन दूधिया था. अकबर रोड स्थित 24 नंबर की बिल्डिंग सफ़ेद थी, सारी धूल-मिट्टी-गर्द साउथ और नॉर्थ ब्लॉक के मटमैले मकानों पर पड़ रही थी. मनमोहन सिंह को इतना पता है कि सरकार लोगों के पास वोट के लिए नहीं जाती, पार्टी जाती है. पार्टी की सरकार नहीं, गठबंधन की सरकार है. अपने मंत्री भी तंत्री निकले तो क्या, सरकार ही भ्रष्ट कहलाएगी. पार्टी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी तो सरकार में हैं नहीं. इसलिए लोकलुभावन योजनाओं का टीका गांधी के ललाट पर, घोटालों का सारा ठीकरा राजपथ के घाट पर.
यूपीए-2 के चौथे सालगिरह पर पंडितों-पत्रकारों और सर्वे करने वाले जनों ने सरकार के मर्सिए पढ़ दिए, लेकिन मनमोहन अभी भी मुस्कुरा रहे हैं कोने भर, कोने में. अगर चुनाव सरकार के काम पर जनमतसंग्रह होता तो दुनिया में कोई सरकार दुबारा नहीं आती. भारी उम्मीदें और हलकी राजनीति वाली इस कठोर दुनिया में चुनाव पार्टियों के बीच मुकाबला है. हमारे यहां गठबन्धनों के बीच.
क्या हैं विकल्प?
यह पूर्वानुमान करना मुश्किल नहीं है कि यूपीए को किसी भी सूरत में तीसरा मौका नहीं मिलेगा. दूध के जले मठ्ठे भी फूंक कर पीते हैं. और मठ्ठे की हालत देखिए. एनडीए के मठ्ठे का मथना जारी है. कई साथी हैं जो साथ हैं पर छुरी भी हाथ है क्योंकि मुंह में राम आता नहीं.
यूपीए का रिकार्ड बेहतर है क्योंकि बसपा और सपा जैसे जानी दुश्मन जान बचाने ही सही पर यूपीए को तो बचाते ही रहे हैं. यूपीए के जैसा कोई गूढ़ सूपरग्लू नहीं है. मोदी उनका तुरूप का पत्ता है पर उनके साथ कई फेंटने को तैयार नहीं. अगर एनडीए सत्ता में वापसी का कारनामा नहीं कर सकी तो कांग्रेस को यूपीए-3 के लिए दोषी करार देना गलत होगा. यूपीए-3 की संभावना दूर तक नहीं है पर राजनीति संभावनाओं का खेल है.
इसकी सीटें कम होना तय है. पर विकल्प की कमजोरी ही इसे ताकत का दंभ देती है. यह गठबंधन इतना नीचे गिर चुका है कि ऊपर का ही रास्ता बचा है. कहते हैं कि राजनीति में एक हफ्ता काफी होता है. 2014 चुनाव में तो अभी एक साल है. मनमोहन की कुटिल कोने-भर की मुस्कान का राज़ भी यही है. गर्भित मुस्कान जो बुद्ध को शर्मिंदा कर दे.