भारत में हो रहे आम चुनाव के बीच अमेरिका की राजदूत नैंसी पॉवेल ने अचानक अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. दिल्ली में अमेरिकी मिशन में उनके सहयोगियों के बीच उनके इस्तीफे का ऐलान हुआ. एक सप्ताह पहले मीडिया में खबर छपी थी कि भारत के साथ संबंध सुधारने की दिशा में ओबामा प्रशासन उन्हें वापस बुला सकता है. इस नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी से जोड़कर देखा जा रहा है.
पॉवेल तीन साल से कुछ कम समय से भारत में थी. अमेरिकी दूतावास ने सोमवार रात अपनी वेबसाइट पर बताया कि भारत में अमेरिका की राजदूत नैंसी जे पॉवेल ने 31 मार्च को अमेरिकी मिशन टाउन हॉल की एक बैठक में ऐलान किया कि उन्होंने अपना इस्तीफा राष्ट्रपति ओबामा को सौंप दिया है. कुछ समय पहले बनी योजना के मुताबिक मई के आखिर से पहले वह रिटायर होकर डेलवेयरे में अपने घर लौट जाएंगी. अमेरिकी दूतावास के सूत्रों ने भारत में चुनाव प्रक्रिया शुरू होने और उसके नतीजे में अमेरिका की गहरी दिलचस्पी से इस इस्तीफे को जोड़ने से इनकार कर दिया.
वहीं ओबामा प्रशासन ने इन खबरों को खारिज किया कि भारत में अमेरिकी राजदूत नैंसी पावेल ने उनके साथ किन्हीं मतभेदों की वजह से इस्तीफा दिया और कहा कि वह 37 वर्ष का अपना उत्कृष्ट करियर पूरा करेंगी. गृह विभाग की उपप्रवक्ता मैरी हार्फ ने अमेरिका के साथ मतभेदों के कारण पावेल के इस्तीफे संबंधी खबरों के बारे में पूछे जाने पर कहा, मतभेदों के बारे में आपके किसी सवाल में सच्चाई नहीं है. वह 37 साल की सेवाओं के बाद सेवानिवृत्त हो रही हैं.
एक सप्ताह पहले मीडिया में ऐसी अटकलें थी कि पॉवेल की जगह कोई राजनीतिक नियुक्ति की जाएगी. ओबामा भारत के साथ संबंधों में हाल में आई गड़बड़ी को दुरुस्त करने के सिलसिले में ऐसा कदम उठा सकते हैं. खबर के मुताबिक, पॉवेल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने में अनिच्छा जताई थी और वह यूपीए के विदेश नीति प्रतिष्ठान की करीबी समझी जाती थीं.
अमेरिका ने 2002 के गुजरात दंगे को लेकर नौ साल से जारी मोदी के बहिष्कार को खत्म करते हुए उनसे संबंध सुधारने का फैसला किया जिन्हें प्रधानमंत्री पद की दौड़ में अग्रणी लोगों में एक समझा जाता है. उसके बाद पॉवेल ने मोदी से भेंट की. अमेरिका का यह कदम मोदी से कोई संबंध न रखने के उसके पिछले रुख में यू टर्न है. साल 2005 में अमेरिका ने धार्मिक स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघन के मुद्दे पर मोदी का वीजा रद्द कर दिया था. तब उसने अपनी इस नीति की समीक्षा करने से इनकार कर दिया था. पहले यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने भी चुनाव से पहले मोदी का बहिष्कार खत्म किया था और उनके साथ संबंध सुधारने की कोशिश की.