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राष्ट्र हित: भारत की वैदिक भविष्य में वापसी

मोदी आधुनिक तकनीक के शौकीन हैं, पर क्या वे आधुनिकता के प्रवर्तक हैं? वे तब तक नहीं हो सकते जब तक वे और उनकी सरकार पौराणिक विज्ञान की वापसी के प्रचारक बने रहेंगे.

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vedic era
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नरेंद्र मोदी आधुनिकता के प्रवर्तक हैं या परंपरावादी? वे प्रगतिवादी हैं या अतीत में उलझ्े हुए हैं, चाहे वह अतीत कितना ही वैभवशाली क्यों न हो? क्या उनकी आकांक्षा भारत को उज्ज्वल नए भविष्य में ले जाने की है या सोने की चिडिय़ा वापस लाने की है? उनके अनेक अनुयायी इन तीनों प्रश्नों  के उत्तर मुझे बता चुके हैं—वे प्रगतिवादी आधुनिकता के प्रवर्तक हैं जो भारत को सुनहरे भविष्य में ले जाना चाहते हैं. वे टेक्नोलॉजी के दीवाने हैं और विज्ञान के प्रशंसक हैं. उन्होंने राजनैतिक प्रचार के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने की प्रेरणा ओबामा से ली और उसे बहुत अधिक सुधार लिया. वे अपने साथी शासनाध्यक्षों (यहां जिक्र ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट का है) के साथ सेल्फी लेते हैं और उसे ट्वीट कर देते हैं. जब मुंबई फिल्मजगत की शोख अभिनेत्री उनसे एक फुट ऊंचे कद के साथ उनके कंधे पर झुक कर सेल्फी लेती है तो वे बड़े शाही अंदाज में पलटकर पूछते हैं, ''हो गई?" ऐसे अनेकानेक तरीकों से वे राजीव गांधी के बाद भारत के सबसे आधुनिक प्रधानमंत्री दिखाई देते हैं. यहां तक आने के बाद हमें एक और प्रश्न करना आवश्यक है. क्या उनकी सरकार में उनकी अपनी आधुनिक सोच झलकती है या वह आरएसएस की भूतकाल की सोच में डूबी है?

दोनों एक साथ नहीं चल सकते. आधुनिक सोच का मतलब है विज्ञान, टेक्नोलॉजी, अब तक अनछुए रहस्यों को जानने की उत्सुकता, यह स्वीकार करने की विनम्रता कि मानव जाति को अभी नए क्षितिज छूने हैं और हम अभी जो कुछ जानते हैं, वह उसका लेशमात्र है जो हम नहीं जानते. इसके विपरीत आरएसएस की परंपरावादी सोच कहती है कि मानव भविष्य में जो कुछ खोजने, बनाने या कल्पना करने की चाहत रखता है, वह सब वैदिककाल में प्राप्त किया जा चुका है. इस स्थिति में तो हमें सिर्फ वेद, पुराण और उपनिषदों का खुले दिमाग से, पर गहराई से अध्ययन भर करना है. हम इस सबको गवां बैठे क्योंकि गुप्त और मौर्य राजवंशों के पतन के साथ ही ङ्क्षहदू साम्राज्य और विरासत छिन्न-भिन्न हो गए. इतना ही नहीं, पश्चिम से आक्रांताओं के आने के कारण मुसलमानों और फिर ईसाइयों ने हमें गुलाम बना लिया. अत: मोदी का उदय, एक सहस्राब्दी के अतीत में छलांग लगाने और उससे जुडऩे के लिए भारत का पहला अवसर है. अगर और धृष्टता करें तो इसका सीधा-सा अर्थ घड़ी और कैलेंडर को भूतकाल में पलटने का है.

नई सरकार जब अपने कदम जमा रही है तब उठाने के लिए यह एक गंभीर मुद्दा है. संसद का महत्वपूर्ण सत्र शुरू हो रहा है. यह मुद्दा उठाया जाना चाहिए क्योंकि यह एक प्रमुख मुद्दा है, महज दीनानाथ बत्रा विद्यापीठ से निकले स्नातक भक्तों की जमात का उठाया कोई शोशा नहीं है.

दीनानाथ बत्रा को अकेला दीवाना और वेंडी डोनिगर की विद्वता का हत्यारा मानकर उसे अनदेखा कर देना मूर्खता होगी. बत्रा हमारे राजनैतिक और बौद्धिक चिंतन में नई शक्ति का प्रतीक हैं, भले ही यह पुरातन सोच की शक्ति हो. भारतीय जनता पार्टी के मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर उनके शिकंजे को साफ देखा जा सकता है. इस सप्ताह नई दिल्ली में एक नया चलन देखा गया जब जर्मन राजदूत माइकल स्टाइनर ने बत्रा से मिलकर केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा की पढ़ाई से उनका विरोध कम करने के लिए तर्क किया. उनके तमाम राजनयिक कौशल के बावजूद जीत संस्कृत की हुई. ऐसे समय में आधुनिकतावादी प्रधानमंत्री की तरफ से हल्के-से हस्तक्षेप करने की जरूरत थी. वे कह सकते थे कि संस्कृत बनाम जर्मन विवाद की क्या जरूरत है? संस्कृत हमारी उत्तम शास्त्रीय भाषा है और उसे सबके लिए आकर्षक बनाया जाना चाहिए तथा पंडित जी की धारणा से मुक्त कराया जाना चाहिए. और जर्मन ही क्यों? भारत के लोगों को फ्रेंच, स्पेनिश और मैंडरिन सहित अनेक महत्वपूर्ण विदेशी भाषाओं में से किसी को भी चुनने की छूट होनी चाहिए. आज दुनिया वैश्विक हो चुकी है और भारत वैश्विक हो रहा है. नेहरू के बाद मोदी सबसे अधिक विदेश यात्रा करने वाले प्रधानमंत्री हैं. अब सांस्कृतिक और भाषायी असुरक्षा की पुरानी खंदकों की गहराई में उतरने का समय नहीं है. आज का युवा भारत देश से निकलकर वैसे ही दुनिया को गले लगाने को आतुर है जैसे मोदी विश्व  के नेताओं को लगाते हैं. (वैसे हरियाणा सरकार शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक करने के लिए बत्रा की सलाह लेने का फैसला कर चुकी है).

यह बहस किसी एक व्यक्ति के बारे में नहीं बल्कि मानसिक अवस्था के बारे में है, जिसमें तर्क को परंपरा, जिज्ञासा को पुराणों से उलझ दिया गया है. यह स्थिति और जटिल हो जाती है. 2001 में अनेक वरिष्ठ  पत्रकारों के साथ अटल बिहारी वाजपेयी के काफिले में मैं भी ईरान गया था. यह यात्रा हर तरह से उपयोगी थी क्योंकि हम सब परसीपोलिस नाम के उस प्राचीन शहर तक गए थे जिसे सिकंदर महान ने तबाह कर दिया था. हम सब उन खंडहरों में घूम रहे थे तभी हमारे साथ मौजूद आरएसएस के एक बौद्धिक विचारक ने हमें इतिहास का ज्ञान देना शुरू कर दिया. उनका कहना था कि देखो, सिकंदर कितना दुष्ट था. वह भारत में भी यही सब करने आया था. लेकिन हिंदू राजा पोरस ने उसे हरा दिया, जिसका असली नाम पौरुष था. वह डर के मारे भारत से भागा, उसकी सेना तहस-नहस हो गई और वह अंतत: मर गया. तब मैंने रोकने की कोशिश करते हुए कहा कि इतिहास तो इससे एकदम अलग है, पर मुझे दरकिनार कर दिया गया. मुझ्से अधिक समझ्दार दोस्त और सामरिक विषयों के पंडित सी. राजामोहन ने मेरा कंधा थपथपाया और बोले, इनसे बहस मत करो, ये इतिहास को आस्था से उलझ देते हैं. आज मुझे उनकी यह बात अक्सर याद आती है.

भारत में इतिहास लंबे  समय से राजनैतिक और वैचारिक फुटबॉल हो चुकी है. इसलिए आप समझ सकते हैं कि आरएसएस के विचारक वामपंथी विचारकों से बदला लेने के लिए इतने बेचैन क्यों हैं. दशकों तक हावी रहे वामपंथी विचारकों ने इतिहास में अपनी सोच ठूंसकर अनेक धर्मनिरपेक्ष विकृतियां भरी हैं. फिर भी इतिहास समझदार असहमतियों और बहस को झेल सकता है. भले ही यह बहस अक्सर इस तरह बेमानी हो कि ताजमहल कभी हिंदू मंदिर था. मगर इससे बड़़ी चुनौती तब खड़ी होती है जब इतिहास ही नहीं, विज्ञान को भी आस्था से उलझा दिया जाता है. इसी उलझाव ने इस हफ्ते मेरे स्तंभ की प्रेरणा दी है.

पिछले सप्ताह ऑस्ट्रेलिया गए मोदी से ज्यादा सुर्खियां गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने एक भाषण में यह कहकर बटोर ली कि भौतिक विज्ञानी वेरनर हेजनबर्ग ने अपना प्रसिद्ध अनिश्चितता का सिद्धांत वेदों से लिया था. (यह और बात है कि उनके मंत्रालय के कुछ अति उत्साही खबरचियों ने हेजनबर्ग का नाम भी नहीं सुना था और प्रेस विज्ञप्ति में आइजनहॉवर का अनिश्चितता का सिद्धांत लिख दिया). यह थोड़ी टेढ़ी सोच है.

यह सोच उस व्यापक और लंबे समय से चली आ रही पौराणिक सोच से मिलती-जुलती है कि पश्चिमी दुनिया आज जो कुछ भी खोज रही है, उसे वैदिक काल में  विकसित किया जा चुका था. भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पक विमान में लंका से अयोध्या लौटे थे यानी उस काल में भी हवाई जहाज थे. आज हम एक से अधिक हथियार ले जाने में सक्षम आइसीबीएम की बात करें या दुश्मन के मिसाइल को रोकने वाले पैट्रियट मिसाइल की या फिर स्ट्रेटेजिक डिफेंस इनिशिएटिव की, तो लंका के युद्ध में राम और रावण के शक्ति बाण क्या थे? या अर्जुन ने कौरवों पर कौन से बाणों की वर्षा की थी? रामानंद सागर ने अपने अंतहीन टेलीविजन धारावाहिकों में इस समृद्ध विरासत को याद दिलाने के लिए बहुत मेहनत की थी. इससे क्या फर्क पड़ता है कि आज हम अपने सैनिकों के लिए एक भरोसेमंद राइफल भी नहीं बना पाते.

इस बात से कतई इनकार नहीं है कि हमारे वेद, उपनिषद और रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रंथ वास्तव में प्राचीन हैं और उनमें अद्भुत कल्पना और विलक्षण ज्ञान मिलता है. हो सकता है कि हमने मशीनी उड़ान की कल्पना उस समय से बहुत पहले कर ली हो, जब हमारे बौद्धिक प्रतिद्वंद्वी यूनान और रोम के वासी इकारस से फिनिक्स तक इनसान पर पक्षियों के बड़े-बड़े पंख लगाकर उड़ान की कल्पना कर रहे थे. यह सच है कि आर्यभट्ट और उनके शिष्यों ने खगोल की अनेक सचाइयों और विचारों की कल्पना की, उन पर चर्चा की और उनका विवरण रखा. इन्हीं सचाइयों के लिए यूरोप के कई विद्वानों को सैकड़ों साल बाद जला दिया गया या जहर दे दिया गया. हो सकता है, किसी ने प्लास्टिक सर्जरी, इनसान में पशु के अंगों के प्रतिरोपण, स्टेम सेल अनुसंधान, किराए की कोख जैसी चीजों की भी कल्पना कर ली हो. मगर यह कहना कि हमारे पास यह सब पहले से था न सिर्फ हास्यास्पद है बल्कि खतरनाक भी है. हमारा देश परंपराओं और अंधविश्वासों में डूबा देश है. हमारे मिसाइल वैज्ञानिक नए अग्नि मिसाइल का परीक्षण करने से पहले पूजा करते हैं और नारियल फोड़ते हैं. हमारे अंतरिक्ष विज्ञानी मंगलयान को रवाना करने से पहले उसका मॉडल तिरुपति ले जाकर भगवान बालाजी का आशीर्वाद लेते हैं. अब अगर हम उनसे ये कहें कि एक सहस्राब्दी पहले जो कुछ हमारे पास था, वे सिर्फ उसकी नकल कर रहे हैं या उस इंजीनियरिंग को पलट रहे हैं तो यह खतरनाक होगा, क्योंकि उनमें से अनेक इस पर आपत्ति भी नहीं करेंगे.

भविष्य की राह पर बढ़ते हुए मोदी के लिए यह बड़ी चुनौती है. उनके पास आधुनिक और तकनीकी दिमाग है. मगर वे स्वयं और उन्हें आगे उछालने वाली वैचारिक तथा सांस्कृतिक ताकतें वैभवशाली अतीत का भ्रम पाले हुए हैं. प्राचीन ग्रंथों में सिमटी पुरागाथाओं और आधुनिक नई खोज की तलाश साथ-साथ नहीं चल सकती. मोदी को अगर नेहरू की सोच से कोई एक सीख लेने की जरूरत है तो वह है वैज्ञानिक यथार्थ.

पुनश्च: पुणे में, आर्यभट्ट के चरणों में- मेरा सौभाग्य था कि पिछले सप्ताह मैंने कुछ घंटे प्रोफेसर जयंत नार्लीकर के साथ बिताए. वे आज भी भारत के एक प्रमुख खगोल भौतिक विज्ञानी हैं और बिग-बैंग सिद्धांत पर सवाल उठाने वाले हॉयल-नार्लीकर सिद्धांत के सह-रचनाकार हैं. उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय में इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रानॉमी ऐंड एस्ट्रो फिजिक्स (आइयूसीएए) बनवाया है और उनके बागीचे में न्यूटन, आइंस्टाइन, गैलिलियो और सबसे महत्वपूर्ण आर्यभट्ट जैसे महानतम वैज्ञानिकों की विशाल प्रतिमाएं हैं.
नार्लीकर की गिनती भारत के सबसे बहादुर और सबसे मोटी चमड़ी वाले तर्कशास्त्रियों में होती है. 76 वर्ष की आयु में भी किसी अंधविश्वास और प्राचीन मान्यता का जिक्र आते ही उनकी आंखें दमकने लगती हैं. उन्हें सबसे ज्यादा खीझ् तभी होती है जब लोग उनके विज्ञान को ज्योतिष समझ्ने की भूल करते हैं. पुणे की फोन डाइरेक्टरी में उनके संस्थान आइयूसीएए को आम तौर पर ज्योतिष का केंद्र बताया जाता है.

अपनी बात साबित करने के लिए उन्होंने बताया कि उन्होंने सबसे प्रतिभावान और सफल विद्यार्थियों तथा मानसिक रूप से बाधित बच्चों की सैकड़ों कुंडलियां एकत्र कीं और उन्हें भारत के सबसे नामी ज्योतिषियों को बांचने को दिया. उनमें से एक भी सही पहचान नहीं कर पाया.

नार्लीकर का कहना है कि ज्योतिष बकवास है और उसे वैदिक बताना सचाई से खिलवाड़ है. उनका कहना है कि वैदिक परंपरा में कोई ज्योतिष नहीं था, कोई मंगल शादी का अमंगल नहीं करता था, कोई बृहस्पति कृपा नहीं बरसाता था और कोई शनि खेल नहीं बिगाड़ता था और उसे मनाने के लिए हर शनिवार को सरसों का तेल और नकदी चढ़ाने की भी कोई जरूरत नहीं थी. उनका कहना है कि यह सब यूनान से आया है. सिकंदर अपने साथ अपनी सेना में बहुत से ज्ञानी भी लाया था. उनमें से कुछ यहीं रह गए और ज्योतिष का प्रचार करने लगे. हमारे पुरखों, हिंदू या अहिंदू, पोरस या पौरुष, ने उसे हाथोहाथ अपना लिया. इसलिए और चाहे जो भी हो, कम-से-कम अपने सितारों की गर्दिश के लिए हमें अपने वेदों को दोष नहीं देना चाहिए.

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