स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर भारत की ऐसी महान विभूति हैं, जिनसे कई विवाद जुड़े हुए हैं. इन विवादों में कुछ मिथक हैं तो कुछ तथ्य. बीजेपी जहां सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी, परम राष्ट्रभक्त और महान समाज सुधारक का दर्जा देती है तो वहीं कांग्रेस इसके उलट उन्हें देशद्रोही साबित करने के लिए तमाम तर्क देती रही है. वहीं जो बीजेपी गाय को आस्था का विषय मानते हुए उसे दैवीय रूप मानती है, उसी गाय के लिए सावरकर ने कभी कहा था कि इसकी पूजा नहीं करनी चाहिए.
आज सावरकर की जयंती के मौके पर भी एक ऐसा विवाद है जो इतिहास में तो दर्ज है, लेकिन सभी इसकी व्याख्या अपने-अपने हिसाब से कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सावरकर को दो राष्ट्र का सिद्धांत देने वाला पहला नेता कहा. बघेल ने कहा कि हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर ने धर्म आधारित हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र की कल्पना की थी. बीजारोपण सावरकर ने किया था और उसे पूरा करने का काम जिन्ना ने किया.
आज सावरकर का विरोध करने वाली कांग्रेस कभी उनकी मुरीद हुआ करती थी. इसकी बानगी इससे मिलती है कि 1970 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब उन्होंने वीर सावरकर के नाम पर डाक टिकट जारी करते हुए उन्हें देश के लिए अपना बलिदान करने वाला और देशभक्त कहा था.
सावरकर ने कहा था- गाय की देखभाल करें, पूजा नहीं
सावरकर ने मराठी भाषा में स्वातंत्र्यवीर सावरकर में गाय को लेकर अपने विचार व्यक्त किए थे. राष्ट्रीय स्मारक प्रकाशन, मुंबई ने ‘विज्ञाननिष्ठ निबंध’ किताब के भाग 1 और भाग 2 के अध्याय 1.5 में गाय को लेकर सावरकर के विचार लिखे हैं. इस अध्याय का शीर्षक है 'गोपालन हवे, गोपूजन नव्हे', जिसका मतलब है कि गाय की देखभार करें लेकिन पूजा नहीं.
गाय सिर्फ एक उपयोगी जानवर
सावरकर ने कहा था कि ईश्वर सर्वोपरि है. उसके बाद मनुष्य का स्थान है और फिर पशु हैं. गाय के बारे में लिखा गया है कि गाय एक ऐसा पशु है जिसके पास मूर्ख से मूर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती. गाय को दैवीय कहते हुए मनुष्य से इसे ऊपर मानना अपमान है. हालांकि सावरकर ने गाय के प्रति खुद को समर्पित भी कहा, लेकिन इसके पीछे उन्होंने गाय के उपयोगी होने का तर्क दिया. उन्होंने कहा कि अगर गाय का सर्वोत्तम उपयोग करना है तो उसकी अच्छी देखभाल करनी पड़ेगी.
इंदिरा ने कहा था देशभक्त, जारी किया था डाक टिकट
आज कांग्रेस पार्टी सावरकर का विरोध कर रही है, लेकिन इतिहास में देखें तो यही कांग्रेस एक समय उन्हें न सिर्फ महान क्रांतिकारी कह चुकी है बल्कि उनके नाम पर डाक टिकट भी जारी कर चुकी है. 1966 में इंदिरा गांधी ने सावरकर के बलिदान, देशभक्ति और साहस को सलाम किया था. 1970 में इंदिरा सरकार ने सावरकर के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था. इतना ही नहीं, बताया जाता है कि इंदिरा ने मुंबई में वीर सावरकर स्मारक के लिए 11 हजार की सहयोग राशि भी दी थी. तब सावरकर का गुणगान करने वाली कांग्रेस आज उनका अपमान कर रही है.
कौन थे विनायक दामोदर सावरकरWe bow to Veer Savarkar on his Jayanti.
Veer Savarkar epitomises courage, patriotism and unflinching commitment to a strong India.
He inspired many people to devote themselves towards nation building. pic.twitter.com/k1rmFHz250
— Narendra Modi (@narendramodi) May 28, 2019
विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के पास भागुर गांव में 28 मई 1883 में हुआ था. सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी थे. हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का श्रेय सावरकर को जाता है. सावरकर महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी नेता भी थे. उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था. उनकी मृत्यु 26 फरवरी 1966 में हो गई.
अटल बिहारी वाजपेयी की नजर में सावरकर
पुणे में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने वीर सावरकर पर आयोजित एक समारोह में कहा था कि सावरकर एक व्यक्ति नहीं बल्कि विचार हैं, चिंगारी नहीं, बल्कि एक अंगार हैं. वे सीमित नहीं, विस्तार हैं. सावरकर एक ऐसे व्यक्ति हैं जो विश्व के इतिहास में हमेशा याद किए जाएंगे. उनका व्यक्तित्व बहुरंगी था.
जब बालगंगाधर तिलक की नजरों में आए सावरकर
1909 में ही रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई से उनका विवाह हो गया था. किताबों से दोस्ती करने वाले सावरकर की आगे की शिक्षा उनके ससुर ने पूरी कराई. उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बीए किया. सावरकर के क्रांतिकारी विचारों से कॉलेज के दोस्त भी प्रभावित थे. उसी समय वे बाल गंगाधर तिलक की नजरों में आ गए. 1905 में विदेशी कपड़ों की होली जलाकर उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अपने सुर बुलंद कर दिए थे. इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके कई लेख प्रकाशित हुए, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे.
किताब से मचाई थी सनसनी
10 मई 1907 को सावरकर ने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई थी. उस समारोह में उन्होंने जो भाषण दिया, वह अंग्रेजों के कान खड़े करने के लिए काफी था. 1908 में उन्होंने पुस्तक ‘द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस: 1857’ लिखी. जो बड़ी मुश्किल से हॉलैंड से प्रकाशित हुई. पुस्तक में सावरकर ने 1857 के विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया.
लंदन में हुए थे गिरफ्तार
मई 1909 में सावरकर ने लंदन से बार एट लॉ (वकालत) की परीक्षा पास की, लेकिन सहमी अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें वहां वकालत करने की इजाजत नहीं दी. लन्दन में रहने के दौरान उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इंडिया हाउस की देखरेख करते थे. 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मारने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था. 13 मई 1910 को पेरिस से लन्दन पहुंचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.
आजन्म कारावास की मिली सजा
8 जुलाई 1910 को एसएस मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते सावरकर भाग निकले. 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई. इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया. इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रांति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी.
1 अप्रैल 1911 को काले पानी की मिली सजा
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षड्यंत्र कांड के आरोप में सावरकार को 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा सुनाते हुए अंडमान द्वीप के सेल्युलर जेल भेज दिया गया. इस जेल में कैदियों को कोल्हू में बैल की तरह जोत दिया जाता था. सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे.