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विनोबा भावेः गूंगे का गुड़

भूदान आंदोलन के प्रणेता संत विनोबा भावे की जयंती पर प्रस्तुत है प्रख्यात पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का आलेख जिसमें उन्होंने बताया है कि विनोबा के विचार क्यों उनके लिए शोध का नहीं, बल्कि श्रद्धा का विषय बन गए.

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विनोबा भावे
विनोबा भावे

संत विनोबा भावे सचमुच हमारे लिए ‘गूंगे का गुड़’ थे. हम उन पर कुछ लिख नहीं सकते. एक तो दो पीढ़ियों की दूरी और फिर कुछ दूरी भौगोलिक भी. जन्म मेरा वर्धा में ही हुआ है पर कोई पच्चीस साल के बाद एक-दो बार वर्धा आया भी तो सभा-गोष्ठी में उन्हें दूर से ही देखा था. उनके आसपास तब इतने लोग थे कि अपने अपरिचय का बोझ उन पर डालना ठीक नहीं लगा था. इस तरह हमारे मन में विनोबा एक व्यक्ति की तरह नहीं बैठे. वह तो एक विचार की तरह कहीं भीतर बैठते चले गए. इस संयोग को हम अपना सौभाग्य ही मानते हैं.

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विनोबा हमारे लिए व्यक्ति नहीं, विचार बन गए. पर हमारा दोहरा सौभाग्य यह भी रहा कि उनके विचार हमारे लिए शोध का विषय नहीं बना. वह श्रद्धा का विषय बनता चला गया. श्रद्धा में मात्रा का महत्व नहीं रह जाता. विचार पढ़ना एक काम है. शोध में उसे लगातार करते जाना है.

खोज-खोज कर नए-नए प्रसंग पढ़ना पड़ता है. जो औरों ने नहीं पढ़ा, उसे पढ़कर दूसरों को दिखाना. शायद थोड़ा डराना भी पड़ता है. फिर विचार यात्रा भी एक यात्रा ही है. यात्रा में चले जाना है. उसमें उतार हैं, चढ़ाव हैं, पड़ाव हैं. ऐसी यात्राओं में सब कुछ होता है. बस कई बार मंजिल भर नहीं मिल पाती. तब बड़ी थकान आती है. निराशा आती है.

इस सबसे मुक्ति मिल गई हमें. विनोबा विचार में श्रद्धा बन जाने से. तब हमारे लिए ये विनोबा विचार ध्रुवतारे के समान बन गए हैं. हमें उत्तर दिशा के बदले ठेठ दक्षिण भी जाना है तो उत्तर में स्थिर खड़ा ध्रुवतारा हमें दक्षिण जाते हुए भी आसानी से भटकने नहीं देता.

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इस श्रद्धा के कारण हमें जो भी थोड़ा-सा प्रसाद मिला है, उसे हम कई मित्र आपस में बांटते रहते हैं. पंजाब में रहने वाले हमारे एक साथी कहने को तो सरकार में क्लर्की का काम करते हैं, पर समय निकाल कर वे अब विनोबा के विचारों का पंजाबी में अनुवाद करने में लगे हैं.

आज से 30-45 बरस पहले अमेरिका ने ‘वॉयजर’ नामक एक अंतरिक्ष यान भेजा था. आज की तरह चौबीस घंटे चलने वाले टेलीविजन तो थे नहीं. लेकिन अखबारों में वॉयजर की खूब चर्चा थी. तब बताया गया था कि मानव रहित यह ‘वॉयजर’ कोई मामूली अंतरिक्ष यान नहीं है. लगभग 35-40 वर्ष तक लगातार गहन अंतरिक्ष में चलते रहने के बाद यह पहली बार हमारे सौरमंडल को पार कर किसी अज्ञात पड़ोसी सौरमंडल में प्रवेश करेगा.

वॉयजर में कभी न गलने, तपने, जलने, सड़ने वाली एक विशेष धातु से बनाया गया ताम्रपत्र जैसा पतरा, टुकड़ा भी रखा गया है. उस पर एक तरफ हमारे इस ग्रह पृथ्वी का वैज्ञानिक भाषा में पूरा पता लिखा है. और दूसरी तरफ एक संदेश भी. विज्ञान की भाषा में ही लिखा गया है कि हम यानी हमारी यह मानव जाति इस ब्रह्मांड में है कहां, कैसे दिखते हैं, हम करते क्या हैं आदि.

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यह वॉयजर छोड़ा गया था तब अखबारों में छपा था कि हमारे इस नौघर के छोटे-से मोहल्ले में हमारी बस बाड़ी, हमारे सौरमंडल में हमारी पृथ्वी के अलावा तो किसी अन्य ग्रह पर जीवन नहीं है. इसीलिए पड़ोसी मोहल्ले के किसी घर तक वॉयजर एक डाकिए की तरह जाएगा. उसका दरवाजा खटखटाएगा.

सौभाग्य से यदि किसी ने दरवाजा खोला तो यह डाकिया उसे हमारी यह पाती, हमारा यह संदेश देगा! तो 35-40 बरस पहले छोड़े गए वॉयजर ने इस वर्ष जुलाई में हमारा सौरमंडल पार कर लिया है. पड़ोसी सौरमंडल कितनी दूरी पर है, वहां उसे कब कोई ग्रह, गृह या घर मिलेगा अभी कुछ पता नहीं.

आज विनोबा के लेख में वॉयजर प्रसंग पर यह सब लिखने की भला क्या तुक है? कारण है विनोबा की बस एक पंक्ति, जो उन्होंने ऐसे ही किसी प्रसंग में कभी कही थी. शब्द ठीक याद नहीं. भाव कुछ ऐसा थाः मुझे लगता है कि चीटियां भी हमें रोज ऐसे ही संदेश भेजती हैं. बस.

चींटी से ब्रह्मांड तक, सूक्ष्म से विशाल तक, आदि से अंत तक या कहें अनादि से अनंत तक विनोबा हमें हाथ पकड़ कर बड़े स्नेह से, बिना डराए यात्रा करवाते हैं.

हम छोटे लोगों के मन में विनोबा का कद बहुत ही बड़ा है. हमारे लिए वे इतने बड़े हैं कि इस छोटे से मन में उनका समा जाना उनकी उदारता ही है. हमें उन्हें भूदान का नेता ही नहीं मानते. हम उन्हें इस रूप में जानते भी नहीं. केवल उस रूप में उन्हें देखेंगे तो तरह-तरह के आंकड़ों में फंसते जाएंगे. भूमि, जमीन का, माटी का मोह तो कुछ हजारों साल से यहां बना हुआ है.

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लोग सुई की नोक बराबर जमीन अपने भाई तक को देने तैयार नहीं होते, बदले में महाभारत जैसा युद्ध कर डालते हैं. हमने विनोबा को भूदान या जमीन के एक टुकड़े तक सीमित कर नहीं देखा है. हमने उनसे मनुष्य के मन में आसमान जैसी विशालता को पहचानने का तरीका सीखा है. उनके गुणदर्शन व अन्य अनेक सिद्धांत तो अद्भुत हैं.

विनोबा पर कुछ लिखना यानी गूंगे का गुड़. हम उसका स्वाद मन में रखते हैं, बता नहीं सकते. बता सकते तो बताते कि एलोपैथी, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी के बीच विनोबा की सिम्पैथी व्याख्या कैसे काम करती है या वे वेदों के अपौरुषेय होने की कैसी सुंदर व्याख्या करते हैं या आज हर तरफ, सबसे बड़ी से लेकर सबसे छोटी संस्था तक में उनके गणसेवकत्व की क्या प्रासंगिकता है.

[यह आलेख प्रख्यात पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का है जिसमें उन्होंने बताया है कि विनोबा के विचार क्यों उनके लिए शोध का नहीं, बल्कि श्रद्धा का विषय बन गए.]

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