पेशावर में स्कूली बच्चों पर कायरतापूर्ण हमला कम से कम इतना तो बता ही रहा है कि जिस पाकिस्तान को हम सिर्फ आतंक के निर्यातक के रूप में जानते हैं, वह खुद भी आतंक का बड़ा भुक्तभोगी है. कभी सेना का मुख्यालय, कभी कोई मस्जिद, कभी बाजार, कभी स्कूल और कभी कोई मलाला, पाकिस्तान आतंकवादी हमलों का सबसे बड़ा केंद्र बन गया है. इसके साथ ही वे खबरें भी चस्पां है जिनमें ओसामा बिन लादेन से लेकर दूसरे बहुत से अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी पाकिस्तान में पाए जाते हैं. यानी पाकिस्तान आतंक की एक ऐसी गुत्थी है जो खुद के लिए और अपने पड़ोस के लिए खतरे की घंटी है.
तो ऐसे में किया क्या जाए? भारत क्या इस तरह से उबलते पाकिस्तान के बगल में शांति से रह सकता है? क्या वहां की आंच और गर्म भाप भारत के अवाम को लंबे समय तक सुकून से रहने देगी. ऐसे में क्या जरूरत इस बात की नहीं है कि हम अपने इस अबूझ पड़ोसी के साथ कम से कम आतंकवाद के मुद्दे पर कुछ ठोस नीति बनाएं. अगर भारत इस तरह का प्रस्ताव रखता है तो पाकिस्तान के पास इसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा. ऊपर से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी पाकिस्तान पर इस बात के लिए दबाव डालेगी. अब हम बच्चों की तरह दोस्ती-कुट्टी के रिश्ते के साथ नहीं जी सकते. अंतरराष्ट्रीय मंच पर सुबह मुंह फेरना और अगली शाम हाथ मिला लेना किसी गंभीर कूटनीति का संदेश नहीं है. हमें पाकिस्तान को समझना और स्वीकार करना होगा, भले ही यह कितना भी अड़चन भरा क्यों न हो.
आतंकवाद के मुद्दे पर भारत और अमेरिका के सहयोग से ज्यादा जरूरी है भारत-पाक सहयोग. क्योंकि हम सिर्फ इतना कहकर अपने यहां के आतंकवाद से नहीं बच पाएंगे कि आतंकवादी पाकिस्तान से आए थे या हमले के पीछे आईएसआई का हाथ है. बड़े भाई या बड़े पड़ोसी के नाते हमें अपनी एजेंसियों के माध्यम से भी आतंक के असली केंद्र को पकड़ना होगा. क्योंकि आतंक का गणित अब उलझ चुका है. पैसा कहीं से आ रहा है, पैसा ले कोई और जा रहा है, आतंकवादी झंडा किसी संगठन का उठाए हैं और उनकी पनाहगाह कोई दूसरी है. न तो किसी संगठन को प्रतिबंधित करने का कोई व्यावहारिक फायदा है और न किसी देश पर तोहमत लगाने का.
भारत को कोशिश करनी चाहिए कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें वहां ज्यादा से ज्यादा मजबूत हों. और पाक सरकार की मजबूती के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसे भारत की तरफ से उलाहने की जगह नसीहत या मदद का हाथ मिलना ज्यादा काम का होगा. जरूरी नहीं कि रिश्तों में ये सुधार दिल्ली-लाहौर बस सेवा जैसे दिखावटी रूप में हो, ज्यादा बेहतर होगा कि यह पर्दे के पीछे के कूटनीतिक सहयोग के रूप में हो. आखिर कोई भी इंसान गुरबत और दहशत में नहीं रहना चाहता, ऐसे में आम पाकिस्तानी इसका अपवाद कैसे हो सकता है?
आज पेशावर में बच्चों के कत्लेआम पर आम भारतीय की पहली प्रतिक्रिया यही है कि बहुत गलत हो रहा है, तो भारत में होने वाले हमलों पर इंसान के नाते आम पाकिस्तानी भी यही कहता होगा. हमें इस आम सोच को सत्ता के बिचौलियों की सोच पर हावी करना होगा. भारत बड़ा भाई है तो उसे हर तरह से इसका एहसास करना होगा, भले ही इसके लिए थोड़ा बहुत लीक से हटना पड़े और छद्म राष्ट्रवाद को इससे फौरी चोट पहुंचती रहे.