दिल्ली चुनाव कहने को महज एक विधानसभा का चुनाव है. सिर्फ 70 सीटों वाली. लेकिन इस पर निगाहें पूरे देश की लगी हैं. इसलिए नहीं कि मुकाबला रोचक है. केजरीवाल और बेदी आमने-सामने हैं. बल्कि इसलिए कि यदि बीजेपी हार गई तो क्या होगा. आइए इसी कल्पना को आगे बढ़ाते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि बीजेपी की हार के मायने किसके लिए क्या होंगे-
मोदी- 2001 में उन्हें गुजरात में सत्ता सौंपी गई थी, वे तबसे अपराजेय हैं. हर तरह के लिए विरोधियों के लिए. पार्टी के भीतर भी और बाहर भी. हर परिस्थिति को अपने पक्ष में मोड़ते हुए वे यह कारनामा करते आए हैं. गुजरात में हैट्रिक के बाद सीधे प्रधानमंत्री पद तक. सफल सफर. बेरोकटोक. यदि बीजेपी की हार होती है तो सबसे बड़ा फर्क मोदी की बॉडी लैंग्वेज पर पड़ेगा. पूरे देश पर जीत का परचम लहराने वाले मोदी को पांच साल तक यह चुभता रहेगा कि जिस लुटियंस में वे रहते हैं, वहां शासन केजरीवाल का है. वे विरोधी दलों को जनता द्वारा सिरे से खारिज कर दिए जाने का दावा करते हैं, लेकिन अब वे ऐसा नहीं कर पाएंगे. बीजेपी भले ही इससे किनारा करे, लेकिन हार मोदी की ही मानी जाएगी. क्योंकि उन्होंने अपने नाम पर ही बेदी के लिए वोट मांगे थे.
अमित शाह- लोकसभा में जीत के बाद से शाह बीजेपी ही नहीं बाकी दलों में भी चुनावी राजनीति के चाणक्य के रूप में स्वीकार किए गए. उनकी बनाई हर रणनीति सफल रही. लोकसभा के बाद अन्य राज्यों के चुनाव में भी उन्होंने पार्टी को अभूतपूर्व सफलता दिलाई. मानो हर परिस्थिति को भांपने का उनके पास एक जादुई चश्मा है और सफलता की सभी चाबियां अपने पास रखते हैं. लेकिन, यदि दिल्ली में बीजेपी हारती है तो सबसे बड़ी किरकिरी अमित शाह की ही होने वाली है. उन्हीं के इशारे पर चुनाव का टाइम तय हुआ, उन्हीं ने दिल्ली बीजेपी की ओर से सभी फैसले लिए. वे ही किरण बेदी को लेकर आए. प्रचार की सभी रणनीति उन्होंने बनाई. अब फेल होंगे तो यह मान लिया जाएगा कि शाह का हर निशाना अचूक नहीं होता.
बीजेपी- लोकसभा चुनाव में जीत के बाद बीजेपी संगठन का मिशन पूरे देश में पार्टी को उसी तरह स्थापित करने का है, जैसा कि आजादी के बाद कांग्रेस ने किया था. वह कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से अरुणाचल तक अपना आधार मजबूत कर रही है. बीजेपी की काया मजबूत भी हो रही है. लेकिन दिल्ली की हार बीजेपी के उस मजबूत शरीर के दिल में छेद जैसी होगी. संघ और बीजेपी में वो धड़ा जो मोदी के कामकाज को लेकर असंतुष्ट नजर आता रहा है, वह मुखर होगा.
केजरीवाल- सालभर के भीतर उन्होंने हर ऊंच-नीच देख ली है. वे अब राजनीति के खेल में मंझे हुए नेता कहे जा सकते हैं. 2013 के अंत में दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व जीत. फिर इस्तीफा. उसके बाद लोकसभा चुनाव में पार्टी की देशभर में किरकिरी. खुद केजरीवाल की बनारस से जबर्दस्त पराजय. और अब फिर दिल्ली के तख्त पर. फॉर्म में चल रहे मोदी और बीजेपी को पटखनी देकर. मोदी की पहेली को क्रैक करने वाले पहले नेता. कई विरोधाभासी नेताओं से भरी हुई आम आदमी पार्टी में अपनी आवाज और मजबूत होगी. अब उनके लिए चुनौती होगी खुद फिर से राष्ट्रीय राजनीति पर उभारने की.
राष्ट्रीय राजनीति- एंटी-मोदी खेमे को सिर्फ इसी का तो इंतजार था. मोदी और बीजेपी की इस असफलता से सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, हर पार्टी को नई ऊर्जा मिलेगी. मोदी और बीजेपी का खूब मजाक बनाया जाएगा. मोदी और उनकी टीम को दबाव में लाने की कोशिश की जाएगी. यही मौका होगा कि लालू, मुलायम तीसरे मोर्चे में एक बार फिर प्राण फूंकने की कोशिश करेंगे. इसी साल बिहार में चुनाव होने हैं.
निवेशक- पिछले दिनों खबर आई कि सौ बड़ी कंपनियों के सीईओ ने बीजेपी ज्वाइन की है. कारोबार जगत अगले पांच साल ही नहीं बल्कि दस साल के लिए मोदी को ही प्रधानमंत्री पद पर देख रहा है. लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों का बैरोमीटर तो शेयर बाजार भी है. शुक्रवार को जिस तरह से सेंसेक्स ने गोता लगाया, विश्लेषकों ने उसे दिल्ली चुनाव से जोड़कर देखा. मानो मोदी का भरोसा टूट गया हो. ये बहुत जल्दबाजी है, लेकिन इस चुनाव में यदि बीजेपी की हार होती है तो मोदी को निवेशकों को फिर से कॉनफिडेंस में लेने की जरूरत होगी.