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आगे क्या होगा केजरीवाल साहब?

आम आदमी पार्टी इस समय जिस मोड़ पर खड़ी है वहां से आगे का रास्ता विकट है और उससे भी बड़ी बात है कि उनकी टीम बिखर गई है, महत्वपूर्ण लोग उन्हें छोड़कर जा रहे हैं और जो हैं उनमें वैमनस्य बढ़ता जा रहा है.

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अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल

आम आदमी पार्टी इस समय जिस मोड़ पर खड़ी है वहां से आगे का रास्ता विकट है और उससे भी बड़ी बात है कि उनकी टीम बिखर गई है, महत्वपूर्ण लोग उन्हें छोड़कर जा रहे हैं और जो हैं उनमें वैमनस्य बढ़ता जा रहा है. अब नई बात यह हो गई कि अदालत ने अवमानना के मामले में अरविंद केजरीवाल पर आरोप तय कर दिए गए हैं जो उनके लिए बहुत कठिनाई पैदा कर सकते हैं.

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उन्होंने जिस उत्साह से बीजेपी नेता नितिन गडकरी के खिलाफ खुले आम आरोप लगाए वह उनके लिए महंगा पड़ता जा रहा है. दिल्ली की जज ने उन पर इस मामले में धारा 499 और 500 के तहत आरोप तय कर दिए हैं. केजरीवाल ने जज की पहल के बाद भी मामले में सुलह करना उचित नहीं समझा जो एक दूरदर्शी कदम नहीं कहा जा सकता.

लेकिन उससे भी बड़ी समस्या तो यह है कि उनके दो प्रमुख सिपहसलार आपस में ही भिड़ गए हैं. पहले तो योगेन्द्र यादव और नवीन जयहिंद भिड़ गए. अभी वह मामला शांत पड़ा भी नहीं था कि केजरीवाल के खास मित्र मनीष सिसोदिया योगेन्द्र यादव से टकरा गए.

दोनों में ईमेल के माध्यम से जंग होने लगी है और मनीष योगेन्द्र पर प्रहार करने से बाज नहीं आ रहे हैं. मनीष उन पर आरोप लगा रहे हैं कि उनके कहने पर ही केजरीवाल दिल्ली की बजाय पूरे भारत में चुनाव लड़ने को तैयार हो गए थे. लेकिन जो लोग केजरीवाल की प्रकृति को जानते हैं वे मनीष के इस कथन पर हंसेंगे. आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल महत्वाकांक्षी और पब्लिसिटी पसंद व्यक्ति हैं. उनके लिए पार्टी कितनी अहमियत रखती है यह इससे ही पता चलता है कि लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियों से ज्यादा उम्मीदवार खड़े करने के बाद वे उनके इलाकों में झांकने भी नहीं गए. वे सिर्फ नरेन्द्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में रहे ताकि उन्हें पूरी माइलेज मिलती रहे. उनके भरोसे खड़े सैकड़ों उम्मीदवार खड़े के खड़े रह गए. उन्हें मंझधार में छोड़कर नेता जी अपना चुनाव लड़ने लग गए.

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इन सबका लब्बोलुआब यह है कि आम आदमी पार्टी इस समय एक नाजुक दौर से गुजर रही है. अब देखना है कि केजरीवाल में कितनी प्रतिभा और नेतृत्व की कला है क्योंकि उस समय देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा था जिसमें ईमानदार और जुझारू नेता की दिल्ली के लोगों को जरूरत थी. केजरीवाल में वे गुण उन्हें दिखे और वे उनके साथ होते चले गए और एक कारवां ही बन गया. लेकिन आज नरेन्द्र मोदी के विशाल कद के सामने सभी नेता छोटे दिख रहे हैं. ऐसे में केजरीवाल का जादू गायब सा हो गया है. बची-खुची कसर नेताओं और कार्यकर्ताओं के असंतोष ने पूरी कर दी. अब पार्टी के सामने अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती है.

अब आगे का रास्ता दुरूह है. उन्हें पहले तो उन्हें बिखरती पार्टी को एक करना होगा और फिर उसे मजबूती प्रदान करना होगा. आज की परिस्थितियों में यह कोई आसान काम नहीं है. कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा हुआ है और मध्य वर्ग के लोग जो कभी उनका आधार थे, अब उनसे दूर होते जा रहे हैं. पार्टी में विचारधारा का बहुत बड़ा संकट है क्योंकि केजरीवाल अब भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा साम्प्रदायिकता को मानते हैं. यह ऐसा मुद्दा है जो कांग्रेस, वाम दलों, यादवी पार्टियों को ज्यादा सूट करता है.

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वे इसी के बूते पर राजनीति की अपनी 'दुकान' चलाते हैं. जब इतनी सारी पार्टियां और नेता इस 'महान' उद्देश्य में लगी हुई हैं तो उस भीड़ में केजरीवाल कहां फिट बैठेंगे, यह कहना मुश्किल है.

केजरीवाल के लिए यह परीक्षा की कठिन घड़ी है और अब पता चलेगा कि वह कितने कुशल नेता हैं.

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