महात्मा गांधी से प्रभावित होकर मांसाहारी भोजन छोड़ने वाले जवाहरलाल नेहरू और उनकी पत्नी अपनी बेटी इंदिरा को भी शाकाहारी बनाना चाहते थे लेकिन एक घटना ने उनकी इस हसरत को कभी पूरा नहीं होने दिया.
इंदिरा गांधी ने अपने संस्मरण ‘बचपन के दिन’ में लिखा, ‘गांधीजी से प्रभावित होकर मेरे माता पिता ने मांस खाना छोड़ दिया था और यह निर्णय किया गया कि मुझे भी शाकाहारी बनायेंगे. मैं चूंकि बड़ों के खाने से पहले खा लेती थी, इसलिए मुझे पता ही नहीं था कि उनका खाना मेरे से भिन्न होता था.’ ‘एक दिन, मैं अपनी सहेली लीला के घर खेलने गई और उसने मुझे दोपहर के खाने पर रूकने को कहा. खाने में मांस परोसा गया.
अगली बार जब मेरी दादी ने मुझसे पूछा कि मेरे लिए क्या मंगाया जाए तो मैंने उस स्वादिष्ट नयी सब्जी के बारे में बताया जो मैंने लीला के घर खाई थी.’ उन्होंने लिखा, ‘दादी ने सभी सब्जियों के नाम लिये लेकिन ऐसी कोई सब्जी हमारे घर में नहीं परोसी जाती थी. आखिर में लीला की मां को फोन करके यह पहेली सुलझाई गई. इसके साथ ही मेरे शाकाहारी भोजन का भी अंत हो गया.’
इंदिरा को खिलौनों का ज्यादा शौक नहीं था. ‘शुरू में मेरा मनपसंद खिलौना एक भालू था जो उस पुरानी कहावत को याद दिलाता है कि दया से कोई मर भी सकता है क्योंकि प्यार के कारण ही मैंने उसे नहलाया था और अपनी आंटी की चहेरे पर लगाने वाली नई और महंगी फ्रेंच क्रीम को उस पर पोत दिया था. अपनी रूआंसी हो आई आंटी से डांट खाने के अलावा मेरे सुन्दर भालू के बाल हमेशा के लिए खराब हो गए.’
इंदिरा ने बचपन के दिनों को याद करते हुए लिखा, ‘गर्मी का लाभ यह था कि हम तारों से चमकते आकाश के नीचे सोते थे जिससे तारों के बारे में ढेर सारी जानकारी मिलती थी और दूसरा लाभ था आम, जो उन दिनों हम एक या दो नहीं बल्कि टोकरी भर कर खाते थे. मैं कम ही खाती थी क्योंकि मैं खाने और सोने को निर्थक बर्बादी मानती थी.’
उन्होंने लिखा है, ‘मुझे अंधेरे से डर लगता था, जैसा कि शायद प्रत्येक छोटे बच्चे को लगता है. रोज शाम को अकेले ही निचली मंजिल के खाने के कमरे से उपरी मंजिल के शयनकक्ष तक की यात्रा मुझे बहुत भयभीत करती थी . लम्बे, फैले हुए बरामदे को पार करना, चरमराती हुई लकड़ी की सीढ़ियों पर चढ़ना और एक स्टूल पर चढ़कर दरवाजे के हैंडिल और बत्ती के स्विच तक पहुंचना.’
उन्होंने लिखा है, ‘अगर मैंने अपने इस डर की बात किसी से कही होती तो मुझे पूरा विश्वास है कि कोई न कोई मेरे साथ उपर आ जाता या देख लेता कि बत्ती जल रही है या नहीं. लेकिन उस उम्र में भी साहस का ऐसा महत्व था कि मैंने निश्चय किया कि मुझे इस अकेलेपन के भय से अपने आप ही छुटकारा पाना होगा.’
इंदिरा ने लिखा है, ‘मेरे दादा परिवार के मुखिया थे, इसलिए नहीं कि वह उम्र में सबसे बड़े थे बल्कि इसलिए कि उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था. लेकिन मेरी छोटी सी दुनिया के केन्द्रबिन्दु में मेरे पिता थे . मैं उनको प्यार, उनकी प्रशांसा और सम्मान करती थी. वही एकमात्र व्यक्ति थे जिनके पास मेरे अन्तहीन प्रश्नों को गंभीरता से सुनने का समय होता था. उन्होंने ही आसपास की चीजों के प्रति मेरी रूचि जाग्रत कर मेरी विचारधारा को दिशा दी.’