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जब कबाड़ से सोनपापड़ी निकलती थी...

यह कहानी है बचपन की, बीते दिनों की, गावों की गलियों की, खेतों की खलिहानों की, कबाड़ की सोनपापड़ी की, पहलेपहले प्यार की...

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कबाड़, सोनपापड़ी
कबाड़, सोनपापड़ी

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ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो, मगर इस बात को बीते भी धीरे-धीरे एक दशक से अधिक होने जा रहा है. हम गर्मी की छुट्टियों में अपने घर-गांव के घोषित मेहमान होते. मेहमान इसलिए क्योंकि पढ़ाई-लिखाई के क्रम में हम अपने ही घर-गांव से बाहर कर दिए गए थे. गांव पहुंचने पर न जूते-चप्पल का होश रहता और न ही कपड़ों का. मई-जून की लू भरी दुपहरी में या तो दिन भर गुड्डी उड़ाना (गौरतलब है कि यूपी-बिहार में पतंग को गुड्डी कह कर संबोधित करते हैं) या फिर खेत में क्रिकेट के लिए पिच तैयार करना.

इस सबसे फुर्सत मिलने पर अपने और पड़ोसियों के छतों या अहातों से शीशे की पुरानी बोतलें, लालटेन या लैंप के टूटे-फूटे शीशे के अलावा कटीले लोहे व अल्यूमिनियम के तारों को चुरा कर गांव की गलियों में घूमने वाले कबाड़ी को बेच देना. उन दिनों उस कबाड़ के बदले सोनपापड़ी मिला करती थी. जिसे हम "बुढ़िया" के पके बाल भी कहते. सोनपापड़ी भी क्या लगती थी. दुनिया के सारे मिष्ठान्न उसके सामने पानी भरते. उसी के दम पर दोस्ती बरकरार रहती और उसी के लिए दुश्मनी ठन जाती.

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कबाड़ी भी जानता कि हम सोनपापड़ी के प्रेमी हो गए हैं और वह हमारे अनहद प्रेम का गलत फायदा उठाता. वह इस बात से भलीभांति वाकिफ रहता कि हम सारा कबाड़ कहीं न कहीं से जुगाड़ या फिर कहें कि चुरा कर लाते हैं. वह इस बात का पूरा फायदा उठाता और हमें थोड़ी सी सोनपापड़ी थमा देता. पहलेपहल तो हम उस पर खिसियाते मगर वह हमें ऐसी नजर से देखता जैसे हमारे सारे भेद सबको बता देगा.

हम भी आखिर क्या करते. बगावत करते तो राज खुल जाता और हम अपनी दिलजाना सोनपापड़ी से वंचित हो जाते. हम अक्सर समझौता कर लेते और अपना सा मुंह लेकर चलते बनते. सारे दोस्त हमारे पीछे-पीछे और हम उनके आगे चलने वाले बिना मुकुट के सरदार. कबाड़वाला सारे टूटे-फूटे बर्तन ले जाता. कई बार तो हम जानबूझकर चीजें तोड़ दिया करते. बढ़ती उम्र ने वो सहज बचपन छीन लिया. वो भी क्या दिन हुआ करते थे. अब कभी नात-रिश्तेदार या परिवार के सदस्य सोनपापड़ी लेकर चले भी आते हैं तो उनमें वो टेस्ट नहीं आता. वो धड़कनों का ऊपर-नीचे और पसीने में तरबतर होना नहीं होता.

सब-कुछ होता है मगर वो पकड़े जाने का डर और सोनपापड़ी हाथ में आने के बाद विजय का भाव नहीं होता. काश लौट आते वो दिन...

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