बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र की सियासत को लंबे समय तक प्रभावित किया. लेकिन अब उनके निधन के बाद सबसे बड़ा सवाल यही है कि उनकी राजनीतिक विरासत को कौन संभालेगा? कौन उनके द्वारा राजनीतिक क्षेत्र में छोड़ी गई जबरदस्त छाप को और पुख्ता करेगा?
क्या वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर से शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष बने उद्धव ठाकरे ही पार्टी की बागडोर को संभालते हुए बालासाहेब की विचारधारा को आगे ले जाएंगे? क्या आदित्य ठाकरे को अब शिवसेना में बड़ी जिम्मेदारी दी जाएगी? या फिर इस बदलते राजनीतिक घटनाक्रम के बीच महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे बाजी मार ले जाएंगे.
पिछले कई अरसे से बाल ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना ने महाराष्ट्र समेत पूरे देश की सियासत को प्रभावित किए हुए था लेकिन अब उनके जाने के बाद तीन लोगों पर नजरें बनी हुई हैं उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे और आदित्य ठाकरे. पिछले कई सालों से राज ठाकरे शिवसेना की ताकत उद्धव से छीनने की कोशिश में जी-जान से जुटे थे, पर वह ऐसा नहीं कर सके. लेकिन अब राज के लिए मौका है.
खुल गए समझौते के दरवाजे
हालांकि शिवसैनिक ये जरूर चाहेंगे कि उद्धव और राज एक हो जाए और शिवसेना उन दोनों की अगुवाई में चले. वोटबैंक की खातिर ऐसा मुमकिन भी है. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक अगर दोनों पार्टियां एक नहीं होती हैं तो शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) दोनों के लिए ये काफी आत्मघाती साबित होगा.
एक बात यहां गौर फरमाने वाली है कि मौजूदा स्थिति ने उद्धव और राज में समझौते के दरवाजे भी खोल दिए हैं. समझौता होता है तो राज ठाकरे पार्टी का चेहरा हो सकते हैं और उद्धव पार्टी की रणनीति तय करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं, जैसा कि वह हमेशा करते आए हैं. इसके अलावा महाराष्ट्र में वह अपनी-अपनी जिम्मेदारियां बांट सकते हैं.
एक हुए तो बढ़ सकता है वोटबैंक
उद्धव और राज चाहे जो भी फैसला लें, लेकिन एक बात साफ है कि वह जो भी करेंगे उससे महराष्ट्र की राजनीति काफी प्रभावित होने वाली है. उनका एक होना और मराठी मानुस की अस्मिता को और आगे ले जाना उन्हें एक अच्छा वोटबैंक दे सकता है. इस वक्त उनके साथ लोगों की सहानुभूति भी है. ऐसे में उनके पास महाराष्ट्र की सत्ता में अपनी जगह बनाने का अवसर है.
कांग्रेस और एनसीपी को हो सकता है फायदा
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर राज और उद्धव ने अपने अहं को नहीं छोड़ा और एक दूजे से मुंह फेरे रखा तो ऐसी स्थिति में उद्धव ठाकरे को ज्यादा नुकसान होने वाला है. हो सकता है कि बाल ठाकरे के कुशल नेतृत्व के चलते कुछ लोग चाहते हुए भी शिवसेना छोड़ एमएनएस में नहीं जा सके थे. ऐसे लोग अब एमएनएस से हाथ मिला सकते हैं. इस उतार-चढ़ाव से मराठी मानुस वोट बटेंगे और प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस और एनसीपी को फायदा होगा. शिवसेना भले ही एक क्षेत्रीय दल हो, लेकिन उसका प्रभाव राष्ट्रीय है. शिवसेना ने राजनीतिक और सांस्कृतिक सोच के धरातल पर अगर अपनी छाप छोड़ी तो यह सिर्फ बाला साहेब ठाकरे के व्यक्तित्व का कमाल था.
संघ की विचारधारा के लिए अनुकूल राज
ठाकरे के हिंदुत्व में जो प्रखरता और धार थी, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक के लिए मुफीद थी. उनके जाने से संघ और भाजपा दोनों का नुकसान हुआ है. उद्धव और राज के बीच चुनाव करना हो तो संघ राज को चुन सकती है. बालासाहेब की अनुपस्थिति सत्तारूढ़ पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकती है.
धारणा राज के पक्ष में
वैसे एक धारणा ये भी बनी हुई है कि राज ठाकरे उद्धव की तुलना की में बालासाहेब की राजनीतिक विरासत की बागडोर अच्छे ढंग से संभाल सकते हैं. राज ठाकरे की विचारधारा, नेतृत्व और संगठनात्मक क्षमता और उनका व्यक्तित्व इस संबंध में काफी सहायक साबित हो सकता है. यानी सवाल बालासाहेब के हिंदुत्व के एजेंडे को संभालने का भी है. वहीं दूसरी तरफ उद्धव का उदासीन, शांत व नरम स्वभाव उनके लिए घाटे का सौदा साबित हो सकता है. हो सकता है अपने इस व्यक्तित्व की वजह से वह पार्टी का सफल व आकर्षक चेहरा ना बन पाएं.
ठाकरे नाम की ब्रांड वेल्यू
एक बात ये भी है कि ठाकरे नाम के बिना शिवसेना का वजूद नहीं है. यह वैसा ही है, जैसे गांधी नाम के बिना कांग्रेस के वजूद की कल्पना करना. राज और उद्धव में से जो भी शिवसैनिकों की भीड़ जुटाएगा, वही सही मायने में 'हिंदू हृदय सम्राट' बन पाएगा.