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क्यों जरूरी है AAP का केजरीवाल केंद्रित होना?

समूहवाद या व्यक्तिवाद? किसी भी राजनीतिक दल को लंबे समय तक कायम रखने में कौन सा फैक्टर ज्यादा कारगर हो सकता है? आम आदमी पार्टी का जन्म एक मुद्दे से हुआ. भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से जुड़े लोगों के समूह ने यह राजनीतिक फोरम बनाया.

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अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल

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समूहवाद या व्यक्तिवाद? किसी भी राजनीतिक दल को लंबे समय तक कायम रखने में कौन सा फैक्टर ज्यादा कारगर हो सकता है?

आम आदमी पार्टी का जन्म एक मुद्दे से हुआ. भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से जुड़े लोगों के समूह ने यह राजनीतिक फोरम बनाया. समूहवाद की इस राजनीति के सूत्रधार अरविंद केजरीवाल की-फैक्टर बने रहे, जिनके साथ योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे कुछ चेहरे भी स्क्रीन पर नजर आते रहे. लेकिन दिल्ली चुनावों में मिली कामयाबी का साइड इफेक्ट कहें या कुछ और कि पार्टी धीरे-धीरे व्यक्तिवाद की ओर केंद्रित होने लगी है.

अगर देखें तो देश में वे ही पार्टियां ज्यादा स्थायी हैं जिन पर परिवारवाद या किसी और वजह से निकला व्यक्तिवाद हावी हो गया है. वरना इससे इतर जितने में प्रयोग हुए हैं उनमें ज्यादातर जल्दी ही बिखर कर बर्बाद हो गए. ऐसा लगता है जैसे राजघराने की शासन व्यवस्था से हम ज्यादा आगे नहीं निकल पाए हैं.

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सिर्फ सोनिया-राहुल और कोई नहीं
कांग्रेस में कई ऐसे नेता हैं जिनकी अपनी हैसियत और जनाधार है, लेकिन वे नेतृत्व के समानांतर शायद ही कभी खड़े होते नजर आएं हों. राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस को भी संकट के दौर से गुजरना पड़ा था. पार्टी टूटी भी, लेकिन जब सोनिया ने कमान संभाली तो सत्ता की भागीदारी के लिए सब साथ हो लिए. अब सोनिया के बाद बात सिर्फ राहुल की होती है - या फिर प्रियंका को लेकर कुछ नारेबाजी हो जाती है. बस और कुछ नहीं. वहां नेता कोई और नहीं है. फिर झगड़ा किस बात के लिए.

बीएसपी बोले तो मायावती
कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनाई. वो मायावती को ले आए और कमान सौंप दी. अब बीएसपी का मतलब मायावती - और कोई नहीं.

सपा यानी मुलायम या फिर अखिलेश यादव
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत कर अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. पार्टी में वर्चस्व को लेकर भले ही नाराजगी और मान-मनौव्वल का दौर चला हो लेकिन नेतृत्व को लेकर शायद ही कभी सवाल उठता हो. वैसे लोकसभा चुनाव में सिर्फ वे ही जीते जो परिवार के सदस्य थे - बाकी पार्टी साफ हो गई - इसलिए सवाल उठाने वाला कोई बचा भी नहीं.

लालू-राबड़ी की पार्टी
लालू-राबड़ी के अलावा संकटकाल में कभी मीसा भारती तो कभी तेजस्वी यादव मोर्चा संभाल लेते हैं, बाकी सब कार्यकर्ता हैं जिनकी लीडरशिप में पूरी आस्था है. ऐसा नहीं होता कि विधायकों का गुट अलग पार्टी बनाने की कोशिश न करता हो, लेकिन लालू का व्यक्तिवाद सारी कोशिशों पर भारी पड़ता है. जरूरत से ज्यादा दखल देने का क्या हाल हो सकता है लालू के सगे साले साधु यादव इसकी मिसाल हैं.

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ठाकरे, ठाकरे और ठाकरे
बाल ठाकरे के बाद उद्धव ठाकरे नेतृत्व संभाल रहे हैं. आगे आदित्य ठाकरे उनकी जगह लेंगे. वहां और कोई नेता नहीं है. उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाकर संघर्ष जारी रखे हुए हैं.

 

डीएमके मतलब करुणानिधि फेमिली
एम करुणानिधि के बाद स्टालिन कमान संभालेंगे. बेटी कनिमोझी फिलहाल 2 जी घोटाले में कोर्ट के चक्कर लगा रही हैं जबकि अलगिरि अलग हो चुके हैं. बाकी सब कार्यकर्ता हैं जिनकी नेतृत्व में पूरी आस्था है. वहां विद्रोह के स्कोप कम ही रहते हैं.

बस पासवान पार्टी
लोक जनशक्ति पार्टी बिहार में दलितों का प्रतिनिधित्व करती है. लेकिन दो ही नेता हैं - राम विलास पासवान और उनके बेटे चिराग पासवान.

संघ परिवार का पॉलिटिकल फ्रंट
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी का नया चेहरा हैं, जो कभी अटल-आडवाणी हुआ करते थे. मोदी ने चुनावों में खुद के नाम पर वोट मांगा और लोगों ने दिल खोल कर दिया भी. फिलहाल बीजेपी में भी व्यक्तिवाद का बोलबाला है. बीजेपी के पीछे भी संघ परिवार है जो विचारधारा से बंधा हुआ है. लोक सभा चुनाव से पहले बीजेपी में भी खूब शोर शोराबा हुआ लेकिन सब शांत भी हो गया.

 

विचारधारा की बात करें तो वामपंथी दल - सीपीआई और सीपीएम भी मैदान में डटे हुए हैं. अक्टूबर 1988 में वीपी सिंह के प्रयास से लोक दल, कांग्रेस एस, जनमोर्चा और जनता पार्टी के एक धड़े को मिलाकर जनता दल बना, लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल सका. भारतीय राजनीति में समूहवाद के साये में अक्सर प्रयोग होते रहे हैं जिसमें छोटी पार्टियों के नेताओँ और बड़ी पार्टियों के असंतुष्टों का समूह बनता है और फिर जैसे ही महत्वाकांक्षाएं उफान लेने लगती हैं सब के सब बिखर जाते हैं. सैद्धांतिक रूप से भले ही इसे खारिज कर दिया जाए, लेकिन भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी हकीकत यही है कि समूहवाद के मुकाबले व्यक्तिवाद जिसकी जड़ में परिवारवाद हो ज्यादा प्रभावी रहा है.

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आप नेता आशुतोष की राय में पार्टी में उठापटक की शुरुआत विचारों के टकराव के कारण हुई जिसमें एक तरफ सियासत की वामपंथी सोच रही तो दूसरी तरफ कल्याणकारी व्यावहारिक राजनीति को लेकर चलने की सोच. अब ये सिर्फ विचारों का टकराव है या वर्चस्व की लड़ाई है? या केजरीवाल के नीचे एक नया समूह बन गया है जो पार्टी पर हावी है? अगर नये समूह में महत्वाकांक्षाएं जगीं, फिर 'आप' का क्या होगा? आप बचेगी या टूटकर बिखर जाएगी. आप को संभालने के लिए केजरीवाल काफी हैं. योगेंद्र यादव के न होने से पार्टी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब बीतते वक्त के हिसाब से मिलते रहेंगे.

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