संसद का पूरा सत्र इस बार पृथक तेलंगाना मुद्दे की भेंट चढ़ गया. और तो और, भारत के इतिहास में पहली बार रेल बजट लोकसभा में पढ़ा न जा सका. अंतरिम बजट पेश किए जाने के दौरान भी इतना शोर-शराबा रहा कि बहुत-सी बातें सुनाई नहीं पड़ीं. हर दिन हंगामा और कामकाज में व्यवधान.
दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी मांगों पर अड़े रहे और संसद में बमुश्किल आन्ध्र प्रदेश के विभाजन का बिल रखा जा सका. इस बिल में 34 संशोधन थे और काफी मशक्कत के बाद ही इसे पेश किया जा सका. ज़ाहिर है कि इसमें बीजेपी की बात मान ली गई है और यह बिल पारित हो गया. इसके बाद आन्ध्र प्रदेश के विभाजन की कागजी प्रक्रिया पूरी हो जाएगी. लेकिन बार-बार सवाल यह उठेगा कि आखिर कांग्रेस ने इस मुद्दे को इतने अपरिपक्व ढंग से निपटाने की कैसे कोशिश की. अब तेलंगाना का मुद्दा उसके जी का जंजाल कैसे बन गया?
सीधा कारण है कि पार्टी ने न तो दूरदर्शिता दिखाई और न ही उसने व्यावहारिक कदम उठाया. इतना ही नहीं, उसने इस मुद्दे का चुनाव में लाभ उठाने का मन बनाया, जिसके ही कारण 15वीं लोकसभा के अंतिम दिनों में इतना शोर-शराबा हुआ कि सदन चलने की स्थिति में नहीं रहा. इतनी अव्यवस्था कभी देखी नहीं गई. कुछ सांसदों ने तो सदन में गुंडों की तरह व्यवहार किया और जितना संभव हुआ, उतनी अराजकता फैलाई. सदन की गरिमा को गहरी चोट लगी.
कांग्रेस ने 1999 में राज्य के विभाजन की खुली मांग की थी और इस मुद्दे को उसने खुद ही आंच दी थी, लेकिन बाद में वह इससे दूर होने लगी. पार्टी ने उस समय इस मुद्दे का राजनीतिक फायदा तो उठा लिया, लेकिन बाद में उसने पृथक तेलंगाना का मामला दबा देने की कोशिश भी की. नतीजतन मामला पेचीदा होता गया और सीमान्ध्र के लोग जो अब तक तमाशा देख रहे थे, अपने राज्य को न बंटने देने के लिए इस आंदोलन में कूद पड़े. यहां से एक अराजक आंदोलन का जन्म हुआ, जिसमें विधायक, सांसद और यहां तक कि मंत्री भी कूद पड़े. यह ऐसा मामला था कि जिसने कांग्रेस को बहुत चोट पहुंचाई और इसके दुष्परिणाम वह लोकसभा चुनाव में भुगतेगी.
आन्ध्र प्रदेश के विभाजन के बिल को बीजेपी के समर्थन से लोकसभा की अनुमति मिल गई है, लेकिन सवाल बना रहेगा कि कांग्रेस ने इस मामले को इतना क्यों घसीटा? क्यों पार्टी के सिपहसालारों ने इसे इतनी दूर जाने दिया कि अराजकता की स्थिति पैदा हो गई? जिस मुद्दे को उसने खुद उठाया, उससे वह क्यों बार-बार भागती रही?