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नीतीश को आखिर क्यों है दिल्ली के नतीजों का इंतजार?

खबर तो पक्की है . महज एक आधिकारिक बयान की औपचारिकता भर बाकी है. नीतीश कुमार फिर से बिहार सीएम की कुर्सी संभालने वाले हैं.

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नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी
नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी

खबर तो पक्की है . महज एक आधिकारिक बयान की औपचारिकता भर बाकी है. नीतीश कुमार फिर से बिहार सीएम की कुर्सी संभालने वाले हैं. तो फिर इंतजार किस बात का है? दिल्ली चुनाव के नतीजों का. जी हां, दिल्ली के नतीजों का बिहार की सत्ता पर सीधा असर होने वाला है. दिल्ली में 7 फरवरी को चुनाव है और 10 फरवरी को नतीजे आ जाएंगे. 15 फरवरी को पटना के गांधी मैदान में जेडीयू की रैली है. बिहार में जेडीयू सत्ता में है और फिलहाल जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री हैं. बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी का भी दावा है कि 15 फरवरी तक जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर नीतीश कुमार फिर से सीएम बन सकते हैं. सुशील मोदी का ये बयान सियासी हो सकता है, पर काफी सटीक लग रहा है. हालात तो यही संकेत दे रहे हैं.

दिल्ली के नतीजों पर नजर
नीतीश लगातार आप नेता अरविंद केजरीवाल के समर्थन में बयान दे रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे दिल्ली में बीजेपी की सरकार नहीं बन पाने की स्थिति में केजरीवाल और कांग्रेस से कहीं ज्यादा बिहार में बैठे नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा खुशी होगी. हाल के उनके हाव-भाव तो यही जता रहे हैं. तो क्या दिल्ली के नतीजे मोदी लहर के दमखम के सबूत होंगे. पूरी तरह तो नहीं, काफी हद तक माना जा सकता है. प्रत्यक्ष तौर पर भले न सही, पर ये चर्चा तो ये थी ही कि नीतीश ने मोदी के चलते ही बिहार के सीएम की कुर्सी छोड़ी थी.

बेलगाम हो रहे मांझी
जीतन राम मांझी ने जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो उन्हें नीतीश कुमार का रिमोट कंट्रोल बताया गया. जैसे जैसे दिन बीतते गए उनके तेवर बदलते गए. राजनीति के एक घुटे हुए खिलाड़ी की तरह मांझी नीतीश शासन की नीतियों, उनके पसंदीदा अधिकारियों और यहां तक की उनके कई ड्रीम प्रोजेक्ट को भी ठिकाने लगाने में लग गए. मांझी ने नीतीश कुमार के सबसे चहेते अफसर को चलता कर दिया. माना जाता है कि नीतीश के सारे ड्रीम प्रोजेक्ट उन्हीं की देखरेख में चलते थे. कहते हैं कि नीतीश को छोड़कर उस अफसर को न तो कोई नेता पसंद करता है और न ही कोई अफसर. मांझी ने इसका पूरा फायदा उठाया. एक ही तीर से उन्होंने तमाम निशाने साध लिये. चर्चा है कि ऐसे कुछ और अफसर मांझी के निशाने पर हैं. दूसरी तरफ मांझी ने नौकरशाही में अपने लोगों को तरजीह देना शुरू किया. इस तरह वो महादलितों के बड़े नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने में भी जुट गए. उनके कई बयान इसकी मिसाल भी हैं - और प्रमाण भी.

फल कोई और क्यों खाए?
बड़ी मुश्किल से बिहार में एनडीए की सरकार बनी थी. फिर नीतीश ने जी जान लगा कर सुशासन बाबू का तमगा हासिल किया. वक्त बदला, हालात बदले और नीतीश ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया. इतना ही नहीं, जिसके बारे में बात करना मंजूर नहीं था उससे उन्हें गले तक मिलना पड़ा. अब नीतीश को लगता है कि अगर डोर ढीली की तो पेंच फंसा कर लालू प्रसाद यादव उसे लपकने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

इसी साल अक्टूबर-नवंबर तक विधान सभा के चुनाव होने हैं. ऐसे में पर्दे के पीछे लालू मांझी की हरकतों को खूब हवा देते हैं. ये बात भी नीतीश समझ चुके हैं. बीजेपी अलग अड़ंगे डालने के फिराक में रहती है.

दिल्ली तो कब की दूर हो चुकी है, पटना भी पकड़ में नहीं आ सकेगा – अगर अपने बेगाने हो गए. कहीं देर न हो जाए इसलिए नीतीश सतर्क हो गए हैं. पर क्या मांझी को नीतीश आसानी से मना लेंगे? ये इतना आसान तो नहीं लगता. मांझी एक महादलित को ही अगले मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. भले उसका नाम कुछ भी हो. और वो नाम नीतीश कुमार तो नहीं हैं.

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