विश्व हिंदू परिषद ने नरेंद्र मोदी और बीजेपी की चुनावी जमीन तैयार करने के लिए अयोध्या से जिस 84 कोसी यात्रा का एलान किया था, दरअसल उसकी महफिल यात्रा को रोककर समाजवादी पार्टी लूट ले गई.
विहिप के रणनीतिकार अब खुद यह मान रहे हैं कि दांव उल्टा पड़ गया. लेकिन यह यात्रा नाकाम क्यों हुई? विहिप के नेताओं को उम्मीद थी कि राम मंदिर समर्थक हिंदुओं का भारी समर्थन इस यात्रा को मिलेगा और सीधे टकराव की स्थिति में वोटों का ध्रुवीकरण तय है. विहिप की कोशिश इस यात्रा मार्ग में पडऩे वाली करीब 14 लोकसभा सीटों पर बीजेपी की स्थिति को मजबूत कर कांग्रेस को पछाडऩे की थी. लेकिन विहिप की रणनीति धरी रह गई.
विहिप के एक नेता के मुताबिक, इस संगठन का बीजेपी से कोई सीधा समन्वय नहीं है. बीजेपी और विहिप के बीच समन्वय का काम सीधे आरएसएस करता है, लेकिन इस बार संघ की ओर से बीजेपी में समनव्य का काम देख रहे सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी या सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी की ओर से कोई पहल नहीं हुई. जबकि विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल सरीखे नेता जो नरेंद्र मोदी में भगवान राम का अक्स देखते हैं, उन्हें उम्मीद थी कि बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं को आगे बढऩे का निर्देश भले न दे, लेकिन कम से कम उत्तर प्रदेश में बीजेपी के कार्यकर्ता जरुर यात्रा के लिए सडक़ों पर उतरेंगे.
जबकि हुआ उल्टा. यूपी से होने के बावजूद खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने आक्रामक रुख नहीं अपनाया और ना ही किसी अन्य बड़े नेताओं ने यात्रा में खास रुचि दिखाई. इस यात्रा में सक्रिय रहे लल्लू सिंह एक-दो नेता ही थे, जिन्हें फैजाबाद से चुनाव लडऩा है और अपना खोया हुआ जनाधार लौटाना है. विहिप के रणनीतिकारों का मानना है कि अगर यूपी के वरिष्ठ नेता अगर यात्रा के समर्थन में खुलकर उतरते तो शायद स्थिति उलट होती. लेकिन इस यात्रा को सपा बनाम बीजेपी बनाने की रणनीति में बीजेपी लुढक़ गई और सपा ने अपना ग्राफ बढ़ा लिया.
इस यात्रा से विहिप की युवा और बुजुर्ग पीढ़ी के बीच समन्वय की कमी भी सामने आ गई है और नरेंद्र मोदी को लेकर मतभेद भी. विहिप के फायरब्रांड नेता प्रवीण तोगडिय़ा को नरेंद्र मोदी का कट्टर विरोधी माना जाता है, जबकि विहिप के संरक्षक अशोक सिंघल का मोदी प्रेम जगजाहिर है. इस 84 कोसी यात्रा का नेतृत्व इस बार पूरी तरह से सिंघल कर रहे थे और रणनीति बनाने का काम दो महासचिवों चंपतराय और दिनेश चंद्र के हाथ में थी.
जाहिर है कि इस यात्रा की विफलता मोदी की उस सोय के खिलाफ है जो उन्होंने बीजेपी की चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन बनने के बाद की पहली संसदीय बोर्ड की मीटिंग में दी थी. उन्होंने ध्रुवीकरण के साथ एकला चलो का संदेश दिया था और सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के बाद खुद-ब-खुद गठबंधन बनने की दलील दी थी. लेकिन तब लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं ने इस दलील को सही नहीं माना था. लेकिन विहिप की रणनीति मोदी की सोच पर ही आधारित थी. ऐसे में मोदी विरोधी तोगडिय़ा को यात्रा की विफलता के बाद पूरी रणनीति पर सवाल उठाने का मौका मिल गया है.
लेकिन विहिप हो या संघ या बीजेपी, शायद यह भूल रही है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती. जनता यह समझ चुकी है कि राम मंदिर निर्माण का वादा सिर्फ चुनावी है. यही वजह है कि विहिप को जैसी उम्मीद थी कि कम से कम यूपी की जनता का अपार समर्थन मिलेगी, उस पर पानी फिर गया.