पीएम मोदी ने चीन से बहुत उम्मीदें लगाई थीं और उन्होंने राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भारत दौरा सफल बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन वह उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे. वह दोस्ती की बड़ी-बड़ी बातें तो कर रहे थे लेकिन अपने सैनिकों से कुछ नहीं कह रहे थे जो भारतीय सीमा में मोर्चाबंदी कर रहे थे. उस घटना से एक बात तो सामने आई कि चीन कारोबार के साथ धमकाने की भी नीति अपनाता है और उस पर पूरा यकीन करना फिलहाल मुश्किल है. अब पीएम मोदी का पड़ाव अमेरिका है जिसने कभी उन पर पाबंदी लगा रखी थी. मानव अधिकार संगठनों के दबाव में या जानबूझकर उन्हें वीजा देने से इनकार किया गया. लेकिन उनके पू्र्ण बहुमत में आते ही सारी चीजें बदल गईं. अब अमेरिका के पसंदीदा नेताओं में नरेन्द्र मोदी भी हैं. एक अच्छे व्यापारी की तरह अमेरिका ने अपना पाला बदल लिया है.
बहरहाल पीएम मोदी ने अमेरिका के प्रति अपनी निष्ठा जताई है और उसे अपना स्वाभाविक साझीदार माना है. उन्होंने यह भी कहा कि दोनों की सफलता में दोनों की ही रुचि है. उन्होंने अमेरिका को ऐसा देश बताया है जिससे मिलकर भारत सारी दुनिया के विकास में पहल कर सकता है. अब दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू हो जाएगी और कई समझौते होंगे. पीएम के साथ देश के बड़े उद्योगपतियों की बड़ी टीम गई है जो वहां बिजनेस के नए आयाम ढूंढेगी.
भारत इस समय अमेरिका से बहुत कुछ चाहता है और बदले में अमेरिका भी. भारत की सबसे बड़ी जरूरत है विदेशी निवेश जो रोजगार के लिए बेहद जरूरी है. चीन से निवेश के मामले में बहुत उम्मीदें थीं जो सही मायनों में पूरी नहीं हुईं. भारत अमेरिका से वीजा नीति को सरल बनाने के लिए भी कहेगा. भारत अमेरिका से प्राकृतिक गैस चाहता है जो उसकी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करेगा. वह नई टेक्नोलॉजी भी चाहता है. भारत को उम्मीद है कि अमेरिका उसके साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक संबंध बढ़ाएगा. इससे देश के विकास में बहुत मदद मिलेगी क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश की बहुत जरूरत है.
पीएम मोदी का मेक इन इंडिया का नारा इससे ही सफल होगा. इसी तरह अमेरिका भी भारत से बहुत कुछ चाहता है जिसमें डब्ल्यूटीए के तहत और छूट देने की बात है तथा बीमा क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति देने की बात है.
अमेरिका चाहेगा कि उसकी कंपनियों को भारत में अबाध रूप से काम करने की छूट हो. इस तरह की कई और मांगें अमेरिका की ओर से आ सकती हैं. वह चाहेगा कि भारत उसका सामरिक भागीदार बने और चीन को हिन्द महासागर में रोकने में मददगार हो. इतने सालों के बाद भी अमेरिका भारत को अपना सामरिक भागीदार नहीं बना सका, यह बात उसे परेशान करती है.
अब देखना है कि पीएम मोदी अमेरिका से क्या डील कर पाते हैं और क्या अमेरिका उन्हें वाकई वह सब देता है जिसकी वह उम्मीदें लगाए बैठे हैं. यह सब इतना आसान नहीं है जितना दिखता है. पीएम मोदी के सम्मान में पलकें बिछाए रखना एक बात है, उनकी बातों को मानना अलग बात है. अमेरिका जबर्दस्त मोल-तोल करने वाला व्यापारिक देश है जो अपनी शर्तों पर ही बातें मानता है. वह भारत की कितनी बातें और मांगे मानता है, यह तो थोड़े दिनों में पता चल जाएगा. अभी तो बस अमुमान लगाने का वक्त है.