तमाम तरह की मोबाइल फोन सेवा कंपनियों के दस लाख से ज्यादा कनेक्शन पूरे साल केंद्रीय एजेंसियों की निगरानी में हैं. सरकार आधिकारिक रूप से, सिर्फ नई दिल्ली में 6,000 फोनों को ही गुप्त रूप से सुनने की बात स्वीकार करेगी.
इस खुफिया सूची में 400 अफसरशाह और सैन्य अधिकारी शामिल हैं जिन पर भ्रष्टाचार के संदेह में नजर रखी जा रही है, इनके अलावा कॉर्पोरेट जगत की 200 बड़ी हस्तियां, 50 से ज्यादा शीर्ष पत्रकार, इतनी ही संख्या में बिचौलिये, हथियारों के दर्जन भर सौदागर, दो दर्जन एनजीओ और लगभग 100 से ज्यादा हाइ सोसायटी के दलाल, नशे के सौदागर और हवाला ऑपरेटर शामिल हैं. संदिग्ध आतंकवादी, उनके समर्थक और कुख्यात अपराधी भी.
निगरानी के दायरे को बढ़ाने के प्रयास में गृह मंत्रालय अब भारतीय टेलीग्राफ कानून, 1885 में संशोधन चाहता है, ताकि फोन और इंटरनेट से संप्रेषण पर निगरानी को मंजूरी मिल सके. गृह सचिव जी.के. पिल्लै का कहना है कि गृह मंत्रालय देश के दूरसंचार कानूनों में बदलाव के लिए जोर दे रहा है जिससे बेहद गोपनीय कॉर्पोरेट संवादों पर निगरानी रखने के सरकार के अधिकार स्पष्ट हों. ये कानूनी रूप से वैध इंटरसेप्ट नीति और निजता संबंधी बड़े बदलावों का ही हिस्सा होंगे.
इस तरह के केंद्रीय वायरटैप की अनुमति देने का अधिकार देने वाले पिल्लै को रोजाना इस तरह के सैकड़ों आवेदन प्राप्त होते हैं जिनमें इलेक्ट्रॉनिक निगरानी की मांग की जाती है. अधिकतर अनुरोध इंटेलीजेंस ब्यूरो (आइबी), आयकर विभाग, सीबीआइ, राजस्व आसूचना निदेशालय (डीआरआइ) और प्रत्यावर्तन निदेशालय (ईडी) से प्राप्त होते हैं.
इनके अलावा राज्य एजेंसियों से भी अनुरोध आते रहते हैं जिन्हें केंद्र शासित क्षेत्रों में फोन टैपिंग के लिए गृह मंत्रालय की अनुमति की जरूरत होती है. कानून लागू करने वाली एजेंसियां पहले हफ्ते बिना अनुमति लिए फोन टैप कर सकती हैं. इसके बाद, टैपिंग सिर्फ मजबूत केस बनने के बाद ही की जा सकती है. {mospagebreak}वास्तव में, कमजोर तर्क काम करते हैं. अपराध, आतंकवाद परिचित आधार हैं लेकिन जो किसी को तंग करने के बहुस्तरीय अवसर मुहैया कराते हैं. प्रत्येक राज्य किसी भी समय औसतन दो से तीन हजार फोन पर निगरानी रख सकता है.
फोन टैपिंग असंगठित है. विभिन्न एजेंसियां अपने ढंग से अकेले ही फोन टैप करती हैं. कई बार तो एक मोबाइल नंबर पर राज्य और केंद्र की कई एजेंसियां नजर रख रही होती हैं. अत्याधुनिक उपकरणों की बहुतायत और सेंट्रल डाटाबेस के अभाव में समस्या और भी गंभीर हो जाती है. कुछ विशेष कानूनों में छोड़कर, वायरटैप को सिर्फ सहायक साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन टैपिंग इतना आसान है कि यह कानून प्रवर्तन अधिकारियों के लिए पहला सहारा बन गया है. एक उपाय के तौर पर फोन टैपिंग पर बढ़ते भरोसे के चलते निगरानी महकमा मजबूत ही होने को है.
सामाजिक कार्यकर्ता अमेरिकी व्यवस्था की वकालत करते हैं जहां सिर्फ जज साक्ष्यों का निरीक्षण करने के बाद ही वायरटैप की अनुमति देने का अधिकार रखता है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर कहते हैं, ''नागरिक स्वाधीनता काफी महत्वपूर्ण है और उसे कार्यपालिका या गृह सचिव के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता. यहां गलत अनुमति दिए जाने का पूरा खतरा मौजूद है, जिसके नतीजतन पक्षपातपूर्ण टैपिंग हो सकती है.''
फोन टैपिंग को भारतीय टेलीग्राफ कानून की धारा 5 के सामान्य प्रावधानों के तहत मंजूरी दी जाती है, लेकिन ऐसा सिर्फ ''सार्वजनिक आपात्काल या जन सुरक्षा के लिए ही किया जा सकता है.'' सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में जस्टिस सच्चर की याचिका के जवाब में बातचीत टैप करने के पांच कारण निर्धारित किए थे-राष्ट्रीय संप्रभुता और एकता, राज्य की सुरक्षा, अन्य देशों के साथ दोस्ताना संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने या अपराध पर काबू पाने की खातिर. पूर्व आइपीएस अधिकारी से वकील बने वाइ.पी. सिंह कहते हैं, ''कर चोरी और भ्रष्टाचार के असाधारणतम मामलों में ही फोन टैपिंग की जानी चाहिए.'' {mospagebreak}
सात केंद्रीय एजेंसियां ही फोन टैपिंग के लिए अधिकृत हैं-आइबी, ईडी, दिल्ली पुलिस, सीबीआइ, डीआरआइ, केंद्रीय आर्थिक खुफिया ब्यूरो और नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो. आइबी के पूर्व निदेशक अरुण भगत कहते हैं, ''फोन टैपिंग कानूनी हथियार है. इसे अदालत की सुरक्षित निगरानी में रखा जाना चाहिए या फिर बहुत कम अधिकारियों की ही इस तक पहुंच होनी चाहिए. टेप लीक होने के मायने आधिकारिक खुफिया सूचनाएं लीक होना है; इसके न सिर्फ व्यक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है बल्कि यह जांच और अभियोजन प्रक्रिया के लिए भी घातक है.''
संदेह की भनक भी आपको जांच के घेरे में ला सकती है. आइएएस अधिकारी रवि इंदर सिंह की आलीशान जीवन शैली गृह मंत्रालय के अधिकारियों के मन में संदेह जगाने के लिए काफी थी. इस अफसरशाह ने दोस्त और सह-आरोपित विनीत कुमार के शानदार और आरामदायक गेस्टहाउस की खातिर सरकारी निवास स्थान की सुविधा को नकार दिया.
उनके फोन कॉल की निगरानी की गई तो उन्हें ''यूक्रेनी और रूसी सॉफ्टेवयर'' के बारे में बात करते सुना गया, यह वेश्याओं के लिए कोड था. होटलों को हार्डवेयर कहा जाता था जबकि रिश्वत को लड्डू. उन पर अमेरिका की टेलीकॉम कंपनी टेलीकॉर्डिया को मोबाइल नंबर पोर्टेबिलिटी के लिए मंजूरी देने का आरोप लगाया गया. माना जा रहा है कि दर्जन भर अन्य अफसरशाहों को भी इन्हीं कारणों से निगरानी में रखा गया है. लेकिन प्रत्येक कानूनी मामले में सैकड़ों अवैध वायरटैप को अंजाम दिया जाता है.
पांच साल पहले मुंबई के एक अखबार ने अभिनेता सलमान खान की खरी-खरी बातचीत छापी थी. सरकार ने दावा किया था कि टेप में मौजूद आवाज खान की नहीं है. इस तरह गैर-कानूनी फोन टैपिंग को ढकने की कोशिश की गई थी. बातचीत शहर की अपराध शाखा से लीक हुई थी. चार प्राइवेट जासूसों को 2005 में सपा नेता अमर सिंह के फोन रिकॉर्ड गैर-कानूनी रूप से हासिल करने के लिए धरा गया था.
लेकिन तब क्या जब अवैध रूप से टैप की गई बातचीत गलत काम का साक्ष्य बन जाए? अधिकारी कहते हैं कि गृह सचिव से पिछली तारीख का आवेदन मांगा जाता है. {mospagebreak}
प्रत्येक एजेंसी को फोन को निगरानी में लेने से पहले प्राधिकार स्लिप भरनी होती है. राज्यों में, राज्य के गृह सचिव इन पर हस्ताक्षर करते हैं. आधिकारिक रूप से, नेताओं के फोन टैप नहीं किए जा सकते हैं-स्लिप पर विशेष उल्लेख होता है कि जिस व्यक्ति का फोन टैप किया जाएगा वह जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होना चाहिए. सेलुलर फोनों के आगमन से पूर्व, राज्य की एजेंसियां टेलीफोन पोल से समांतर लाइनें लेती थीं, उसके आसपास ही रहने की व्यवस्था करती थीं या फिर वे खानाबदोशों की तरह तंबू लगाकर रहते थे.
अक्सर निशाना बनाए जा रहे शख्स को फोन में दिक्कत के चलते पता चल जाता था. कॉल सुनी जा सकती थीं, रिकॉर्ड नहीं की जा सकती थीं. सेलफोनों ने संगठित अपराध सिंडिकेट को गति और गुमनानी दी. कनेक्शन फर्जी नाम से भी लिया जा सकता है. 1990 के दशक के मध्य में, ऑपरेटर कॉल का रिकॉर्ड रखने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थे. निगरानी के पहले मामले में, उत्तर प्रदेश स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट राजेश पांडे ने इलाहाबाद में एक टेलीकॉम इंजीनियर से टाइपराइटर के आकार का इंटरसेप्शन बॉक्स तैयार करवाया था. बॉक्स को पास रखा जाता और उसे स्विचिंग स्टेशन से जोड़ा जाता.
आज, सेलुलर सेवा उपलब्ध कराने वाली प्रत्येक कंपनी का एक एग्रीगेशन स्टेशन होता है जो सर्वरों को जोड़ने वाला होता है. इसे मीडिएशन सर्वर्स कहा जाता है क्योंकि ये सेलुलर ऑपरेटर और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच मध्यस्थता करते हैं. इनके जरिये फोनों को टैप किया जाता है. दो तरह की इंटरसेप्शन सुविधाएं हैं-इंटीग्रेटेड सर्विसेस डिजिटल नेटवर्क (आइएसडीएन) और ली.ज लाइन. आइएसडीएन के तहत, मीडिएशन सर्वर कॉल को पकड़ता है, और फिर इसे प्राइमरी रेट इंटरफेस (पीआरआइ) के जरिए सरकारी एजेंसी के दफ्तर को प्रेषित करता है.
पुलिस पीआरआइ लाइन पर फोन को सुन सकती है और उससे जुड़े कंप्यूटर में रिकॉर्डिंग स्टोर कर सकती है. साथ ही साथ, पकड़ी गई कॉल की साउंड फाइल भी रिकॉर्ड हो जाती है और मीडिएशन सर्वर पर स्टोर हो जाती है. आइएसडीएन में, कॉल से संबंधित डाटा वास्तविक समय में हस्तांतरित नहीं होता. 64 केबीपीएस की धीमी गति के कारण 2 -3 मिनट लग ही जाते हैं. डाटा पैकेट टै्रफिक में खो जाता है और कॉल पीआरआइ लाइन तक नहीं पहुंच पाती है. {mospagebreak}
ली.ज लाइन में, सर्विस उपलब्ध कराने वाली कंपनी एजेंसी को फास्ट स्पीड वाले फाइबर ऑप्टिक केबल कनेक्शन के जरिए अपने मुख्य नेटवर्क तक पहुंच मुहैया कराती है. कॉल से संबंधित डाटा न सिर्फ वास्तविक समय में, 2 एमबीपीएस की विद्युत गति से हस्तांतरित हो जाता है, किसी भी कॉल के छूटने की संभावना बहुत कम रहती है. लेकिन फाइबर ऑप्टिक केबल कनेक्शन की लागत अधिक आने से राज्य की एजेंसियां आइएसडीएन लाइनों पर निर्भर रहती हैं. सेवा उपलब्ध कराने वाली कंपनी एक नंबर की कॉल को पकड़ने की सुविधा किसी भी समय पर आठ एजेंसियों को दे सकती है.
निगरानी की सामान्य विधियों में व्यक्ति के कॉल के डाटा रिकॉर्ड (सीडीआर) या फिर डायल या रिसीव किए गए नंबरों की सूची को दिया जाना शामिल रहता है. इसके लिए सरकार की अनुमति की जरूरत नहीं रहती. विशेष सॉफ्टवेयर के जरिए, सीडीआर तेजी से 'रिलेशनशिप ट्री' या चार्ट्स का निर्माण कर देता है, जो हजारों कॉलों में संबंधों को दिखाता है.
प्रौद्योगिकी निजता पर प्रहार है. धनी और प्रसिद्ध लोग प्रयास करते हैं और बच निकलते हैं. टैप हुई अपनी एक बातचीत में नीरा राडिया ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि की पत्नी रजती के चार्टर्ड एकाउंटेंट को अपने टाटा डुकोमो के नंबर पर कॉल करने के लिए कहा था. कानूनी रूप से किसी फोन को तभी टैप किया जा सकता है जब उस टेलीकॉम सर्विस कंपनी को लिखित में इसकी जानकारी दी जाए. जाहिर है राडिया अपने ग्राहक टाटा द्वारा उपलब्ध कराए गए नंबर पर अधिक सुरक्षित महसूस करती होंगी.
इसमें कोई हैरत नहीं कि राडिया के आइडिया और एमटीएनएल के फोन ही टैप किए जा सके. अनिल अंबानी के सहयोगी टोनी जेसुदासन रिलायंस सेल -फोन नंबरों को ही प्रयोग में ला रहे थे. सूत्र बताते हैं कि आयकर विभाग और सीबीआइ जेसुदासन के फोन टैप करना चाहते थे लेकिन स्वाभाविक कारणों से इसके खिलाफ फैसला किया.
इस कहानी में एक पेच है. संगठित अपराध और आतंकवाद पर नजर रखने के लिए बड़ी संख्या में निगरानी उपकरण खरीदे गए लेकिन खुफिया एजेंसिया पछता रही हैं कि फोन टैपिंग और संदेश सुनने के कुछ खास नतीजे हाथ नहीं आ रहे क्योंकि आतंकवादियों ने तेजी से ब्लैकबेरी फोनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है जबकि उनके आका नई पीढ़ी के इनमारसैट-4 सैटेलाइट फोन काम में ले रहे हैं. इससे उनके फोन बीच में सुनना फिलहाल नामुमकिन-सा हो गया है. {mospagebreak}
इनमारसैट-4 फोनों को हालांकि पकड़ा जा सकता है लेकिन यह बातचीत कोड फॉर्मेट में ही मिलेगी. आवाज और डाटा की प्रभावी ढंग से निगरानी तो लंदन और न्यूयॉर्क स्थित इनमारसैट-4 स्विच पर की जा सकती है. वहां यह बिना कोड वाले स्वरूप में उपलब्ध है. यही वजह है कि सूचना के लिए भारत अब भी ब्रिटिश और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों पर निर्भर है. आतंकवादी, छुटभैये अपराधी और कारोबारी घराने वॉयस-ओवर इंटरनेट टेलीफोनी (वीओआइपी) आधारित स्काइपी और गूगल मेल के अलावा चैट का भी सहारा लेते हैं. कॉल और मेल को इनक्रिप्ट करने वाले मुफ्त के सॉफ्टवेयर आधुनिक हैंडसेट और कंप्यूटरों पर डाउनलोड किए जा सकते हैं.
बातचीत और संदेशों को सुरक्षित रखने के लिए वाणिज्यिक रूप से उपलब्ध सेलक्रिप्ट जैसे सॉफ्टवेयर सबसे कारगर पाए गए हैं. सभी स्मार्टफोनों के अनुकूल बैठने वाला सेलक्रिप्ट सभी तरह की बातचीत को निजी स्तर पर कूटबद्ध कर देता है. पूरी तरह से सुरक्षित वार्ता के लिए दोनों तरफ के हैंडसेट में यह सॉफ्टवेयर लगा होना चाहिए. अगर एक ही हैंडसेट में यह लगा है तो दूसरे छोर पर बातचीत बिना कूटबद्ध स्वरूप में उपलब्ध होगी.
गृह मंत्रालय अब एक सर्वर लगा रहा है, जिसे 'बिग ब्रदर सर्वर' कह सकते हैं. इससे सरकार की ताकत बढ़ जाएगी. इस योजना के केंद्र में है 800 करोड़ रु. की लागत वाला फोन और डाटा निगरानी का एक केंद्रीकृत सेंटर. इस सेंटर के अस्तित्व में आने से फोन टैप करने की अधिकृत सात एजेंसियों और यहां तक कि राज्यों के बीच भी तालमेल बढ़ेगा. गृह मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं, ''इससे आंकड़ों को एक जगह पर लाकर बारीकी से उनके अध्ययन-विश्लेषण में सलियत होगी और केंद्रीय एजेंसियों को ठोस खुफिया सूचनाएं मिल पाएंगी.'' इससे देश भर में टैप किए जा रहे फोनों का आंकड़ा भी उपलब्ध होगा.
इस निगरानी प्रणाली से राज्य के छोटे शहर-कस्बे राजधानी से जुड़ पाएंगे और सभी राज्यों की राजधानियां फाइबर ऑप्टिक केबल्स के जरिए दिल्ली स्थित केंद्रीय निगरानी इकाई से जुड़ जाएंगी. आइबी दिल्ली में बैठे-बैठे कहीं के किसी फोन की निगरानी कर सकता है. लोकल स्विचबोर्ड से जुड़ने के कारण दिल्ली का यह सेंटर राज्यों के लिए भी टैपिंग प्रक्रिया को और आसान बना सकता है. {mospagebreak}
अधिकारी के शब्दों में, ''इससे सर्विस ह्ढोवाइडर की जिम्मेदारी भी बढ़ जाएगी क्योंकि वह संबंधित बातचीत मुहैया कराने को मजबूर होगा.'' इसके तहत सरकार को पहली दफा किसी संदिग्ध के सेलफोन की विभिन्न नेटवर्को पर, वह भी देश भर में निगरानी करने की इजाजत मिल जाएगी. एक खुफिया अधिकारी तो इसे फोन टैपिंग सॉफ्टवेयर का ''एटमी हथियार'' करार देते हैं.
यही वजह है कि सरकार मैंडेटरी ऑडिट ट्रेल फाइल को जारी रखने की योजना बना रही है, जिसमें टैप किए जाने वाले नंबरों के इलेक्ट्रॉनिक फुटप्रिंट भी होंगे-एजेंसी को कब तक के लिए टैपिंग की इजाजत है, बातचीत रिकॉर्ड हुई क्या? और उसकी प्रतियां भी बनीं क्या? वगैरह. दुनिया भर में यही प्रोटोकॉल लागू है. फोन टैप को साक्ष्य के तौर पर मान्यता देने वाले मुल्कों की अदालतों में ऑडिट फाइल पेश किया जाना जरूरी होता है.
इस परियोजना से जुड़े एक खुफिया अफसर के मुताबिक, ''भारत में ह्ढोटोकॉल के तहत टैप की अनधिकृत रूप से कोई प्रति नहीं बनाई जा सकती. पूरा तंत्र पारदर्शी है.'' ऑडिट फाइल तक एक खास पासवर्ड के जरिए ही पहुंचा जा सकता है, जो केंद्रीय एजेंसियों के पास ही होगा.
टैप की हुई तमाम सूचनाओं के विश्लेषण-मिलान की कोशिशों के तहत गृह मंत्रालय ने राज्यों से वे सारे रिकॉर्ड मांगे हैं, जो उन्होंने फोन और इंटरनेट पर पकड़े हैं. तमाम राज्यों में इलेक्ट्रॉनिक निगरानी के लिए बनी अहम समितियों की कार्यप्रणाली पर भी नजर रखने की इसकी योजना है. ऐसी केंद्रीय समिति के मुखिया कैबिनेट सचिव हैं और कानून तथा दूरसंचार सचिव इसके सदस्य हैं. ज्यादातर अर्जियों को गृह सचिव से मंजूरी मिलने की वजह से यह निगरानी समिति महज औपचारिकता है. फोन या इंटरनेट निगरानी पर बमुश्किल ही यह कोई सवाल उठाती है. राज्यों में इन समितियों का क्रियान्वयन बहुत सुस्त है. {mospagebreak}
इस दृश्य की जरा कल्पना करें. मुंबई के मलाड में बैठा क नाम का कोई आतंकवादी कोलाबा में आतंकवादी ख और बांदा में ग को एसएमएस भेजता है. वह दोनों से जु बीच पर छह बजे शाम को मिलने को कहता है. ख और ग के निकल पड़ने की वजह से उनके सेलफोन लोकेशन के जरिए उन्हें तलाश पाना मुश्किल हो जाता है. पुलिस क के एसएमएस में बदलाव करते हुए यह लिखकर ख को भेजती है कि ''5 बजे कालाघोड़ा पर मिलो'' और ग को लिखती है कि ''6 बजे रीगल सिनेमा पर मिलो.'' एसएमएस पर भरोसा करते 'ए ख और ग वैसा ही करते हैं. पुलिस बड़ी सफाई के साथ तीनों को दबोच लेती है.
ज्यादातर आतंकवाद निरोधक एजेंसियां इस तरह के ऑपरेशन को अंजाम दे सकती हैं. ऑफ-एयर टैपिंग की यह तरकीब पुलिस को वस्तुतः सेलफोन टावर जैसा औजार बना देती है. वह एसएमएस और कॉल को इधर या उधर या फिर जाम भी कर सकती है. मशीन किसी वाहन पर भी रखकर शहरी इलाकों में निशाने का पीछा कर सकती है, जहां निगरानी की पारंपरिक तरकीबें गतिशील संदिग्ध का पीछा करने में नाकाम रहती हैं.
सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि इस टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल पर नियंत्रण के लिए उनके पास पर्याप्त विभागीय नियम-कानून हैं. मसलन, मुंबई में अपराध शाखा को इस मशीन के इस्तेमाल के लिए पुलिस आयुक्त से लिखित अनुमति की दरकार होती है. फिर भी सियासी खुफियागीरी और निजी फायदों के लिए इसके दुरुपयोग के अंदेशे को खारिज नहीं किया जा सकता. इस संभावना को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश के आतंकवाद निरोधक दस्ते ने हाल में ही इस औजार को लेने से मना कर दिया. पर इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि दूसरे ऐसा संकल्प दिखाएंगे. पर भविष्य में अगर कोई बड़ा सुधार हुआ तो बात और है.