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2019 में मायावती-अखिलेश इतिहास रचेंगे या खुद बन जाएंगे इतिहास?

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी साल 2019 में गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतरती है तो फिर 1993 की तरह सियासी इतिहास लिख सकती है. अगर दोनों दल किन्हीं राजनीतिक कारणों से साथ नहीं आते हैं तो उन्हें अपना राजनीतिक वजूद को बचाए रखना एक चुनौती है.

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अखिलेश यादव और मायावती (फोटो-Aajtak)
अखिलेश यादव और मायावती (फोटो-Aajtak)

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देश की सियासत में साल 2019 महत्वपूर्ण माना जा रहा है. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में समाजावदी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. ऐसे में दोनों सियासी दलों के पास 2019 में एक बार फिर से अपने राजनीति को जिंदा करने का मौका है. ऐसे में देखना है कि अखिलेश यादव और मायावती आपस में हाथ मिलाकर इतिहास रचते हैं या फिर खुद इतिहास बन जाते हैं?

देश की सत्ता का फैसला उत्तर प्रदेश से होता है. सूबे में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें है. पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी इसी उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 पर जीत दर्ज कर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए थे. मोदी लहर में सपा अपने कुनबे तक सिमट गई थी और बसपा तो खाता भी नहीं खोल पाई. इसी का नतीजा था कि 23 साल की दुश्मनी को भुलाकर इन दोनों दलों ने सूबे के उपचुनाव में हाथ मिलाया तो उन्हें जीत का फॉर्मूला मिल गया. 

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इसी फॉर्मूले को सपा-बसपा 2019 के लोकसभा चुनाव में दोहराने के लिए एक बार फिर हाथ मिला सकते है. अखिलेश यादव और मायावती गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरते हैं तो सूबे में एक बार फिर नया सियासी इतिहास रच सकते हैं. दरअसल, 2014 में मोदी लहर के बावजूद सपा-बसपा 41.80 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी. जबकि बीजेपी को 42.30 फीसदी वोट मिले थे.

हालांकि, पांच साल में सियासी समीकरण बदले हैं. मौजूदा दौर में न तो 2014 के चुनावी जैसी मोदी लहर है और न ही सूबे में सपा-बसपा सत्ता में है. वहीं, केंद्र से लेकर प्रदेश तक की सत्ता पर बीजेपी काबिज है और विपक्ष लगातार सरकार को घेरने में जुटा है.

केंद्र की मोदी और राज्य की योगी सरकार को सत्ताविरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है. इसके संकेत सूबे की तीन लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजे देते हैं, जिसमें बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था. जबकि इन सीटों पर पहले बीजेपी काबिज थी.

सपा-बसपा के साथ आने से बीजेपी की राह 2019 के लोकसभा चुाव में काफी मुश्किल भरी हो जाएगी. सूबे में दोनों दलों के पास मजबूत वोट बैंक है. सूबे में 12 फीसदी यादव, 22 फीसदी दलित और 18 फीसदी मुस्लिम हैं, जो कुल मिलाकर आबादी का 52 फीसदी हिस्सा है. इन तीनों समुदाय के वोटबैंक पर सपा-बसपा की मजबूत पकड़ मानी जाती है. सूबे में 1993 के विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा ने गठबंधन कर इतिहास रच दिया था. माना जा रहा है कि सपा-बसपा 23 साल के बाद एक बार फिर गठबंधन करके सियासत की नई इबारत लिख सकते हैं और बीजेपी के लिए 2014 के चुनाव नतीजे दोहराना मुश्किल होगा.

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वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में अगर सपा-बसपा मिलकर चुनावी मैदान में नहीं उतरते हैं तो फिर बीजेपी की राह एक बार फिर आसान हो जाएगी. दरअसल, ये बात इसलिए कही जा रही है कि अखिलेश यादव लगातार बसपा के साथ गठबंधन की बात कर रहे हैं, लेकिन बसपा अध्यक्ष मायावती इस संबंध में अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं. इतना ही नहीं मायावती कौन सा सियासी कदम उठाएंगी ये बात पूरे यकीन के साथ उनके सिवा कोई नहीं कह सकता है. जानकारों की मानें तो किन्हीं राजनीतिक कारणों से अगर सपा-बसपा गठबंधन नहीं करते हैं तो उनके इतिहास बनने का खतरा हो सकता है. 

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