वर्ष 1990 में अयोध्या गोलीकांड के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को हिंदुत्ववादी संगठनों और भाजपा के नेताओं ने मुल्ला मुलायम कहकर संबोधित किया था. यह संबोधन ही मुलायम सिंह की सबसे बड़ी ताकत बना और यादवों के दिलों पर राज करने वाले मुलायम सिंह यादव के लिए मुसलमान एक स्थायी वोट बैंक बन गया.
लेकिन इस बार लगता ऐसा है कि 26 साल पुराना यह तालमेल अब लड़खड़ाने लगा है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है और मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव राज्य के मुख्यमंत्री हैं. लेकिन चुनाव के पहले की राजनीतिक उमस संकेत देती है कि समाजवादी पार्टी के साथ मुसलमान पहले जैसा प्रतिबद्ध है, ऐसा मानना गलत है.
मुलायम ने कई मौकों पर खोया मुसलमानों का विश्वास
मुजफ्फरनगर के दंगों से लेकर दादरी तक समाजवादी पार्टी ने कई मौकों पर मुसलमानों का विश्वास खोया है. मुलायम अपने पिछले कुछ वक्तव्यों और फैसलों में हिंदू मतदाताओं को रिझाने की कोशिश करते भी नजर आए हैं. इन बातों ने मुसलमानों को आहत भी किया है और मुलायम की साख कमजोर भी पड़ी है.
अब भी बाकी है कुछ उम्मीद
हालांकि मुलायम सिंह यादव से मुसलमानों का पूरी तरह मोहभंग हो गया हो, ऐसा भी नहीं है. अभी भी मुसलमानों की एक बड़ी आबादी की पहली पसंद नेताजी ही हैं. लेकिन मुसलमानों के जेहन में एक सवाल यह भी है कि मोदी को रोकने के लिए वो किसके साथ जाएं और क्या नेताजी या उनकी पार्टी इस बार उत्तर प्रदेश में दोबारा सत्तासीन होने की स्थिति में है. अगर नहीं तो क्या उन्हें मुलायम सिंह यादव की साइकिल पर बैठकर अपना वोट बरबाद करना चाहिए या फिर एक ऐसी पार्टी की ओर जाना चाहिए जो मोदी के रथ को रोक सके.
इस व्याकुलता को मायावती ने बखूबी भांपा है. और 2012 में पंडितों से चोट खाई मायावती इस बार दलित-मुस्लिम समीकरण पर काम करती नजर आ रही हैं. यही कारण है कि सतीश मिश्र से भी ज्यादा प्रमुखता पार्टी नसीमुद्दीन सिद्दिकी और मुनकाद अली को दे रही है. मायावती के ये दो विश्वासपात्र चेहरे अपनी बिरादरी के बीच बसपा का झंडा बुलंद कर रहे हैं.
वर्ष 2014 की मोदी लहर के बाद मुसलमानों का मन यह है कि किसी ऐसे के साथ खड़े हों जो मोदी के रथ को 2017 के विधानसभा चुनावों में रोक सके. ऐसे में मायावती मुसलमानों के सामने एक प्रभावी विकल्प बनकर उभरी हैं. उन्होंने मुजफ्फरनगर में हाल ही में पैदा हुए तनाव में मुसलमानों को आश्वस्त किया कि वो उनके साथ हैं. नेताजी और कांग्रेस ऐसा कर पाने से चूक गए.
जब बहनजी ने दिया मुसलमानों का साथ
ट्रिपल तलाक पर जब मोदी ने टिप्पणी की तो मायावती तुरंत मुसलमानों के पक्ष में उतरीं और कहा कि किसी संप्रदाय के मुद्दे उसी संप्रदाय के लोग हल करें, वो ज्यादा बेहतर है. मायावती लगातार मुसलमानों को यह संदेश देने में लगी हैं कि इस वक्त सूबे में अख्लियतों की नुमाइंदगी का सबसे सही नाम वो हैं, मुलायम सिंह यादव या कांग्रेस नहीं. और इसका असर भी दिख रहा है. पूर्वांचल की रैली से लेकर सहारनपुर की सभा तक दलितों की ही तरह अपार संख्या में मुसलमानों की भी उपस्थिति देखने को मिली. यह बढ़त और मायावती के प्रति यह विश्वास सपा और भाजपा को खासा बेचैन कर रहा है.
दरअसल, मायावती को जो मुस्लिम समर्थन मिल रहा है, वो कांग्रेस पार्टी को भी मिल सकता था. लेकिन कांग्रेस पर यकीन करना लंगड़े घोड़े पर दांव लगाने जैसा है. कांग्रेस खुद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. ऐसे में वो किसी समुदाय की सुरक्षा की गारंटी ले सकती है या फिर किसी लहर या आंधी को रोक सकती है, इसकी गुंजाइश न के बराबर है.
मायावती को मिल सकती है मजबूती
भाजपा विरोधी दलों में मायावती मुसलमानों की एक बड़ी खैरख्वाह बनकर उभरी हैं. मुलायम सिंह यादव के कुनबे की लड़ाई ने मुसलमानों को बसपा की ओर और तेजी से धकेला है. अगर यह आकर्षण वोट में तब्दील हो सका तो मायावती सबसे मजबूत बनकर उभर सकती हैं.