उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव के लिए गुरुवार को वोटिंग है, जहां पर सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की साख दांव पर लगी है. ऐसे में सपा के सामने अपने गढ़ को बचाने की चुनौती है तो बीजेपी के सामने अपने सियासी वर्चस्व को कायम रखने की लड़ाई है. इधर, बसपा के सामने अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने का संकट है. इतना ही नहीं उपचुनाव में मायावती के द्वारा किए दलित-मुस्लिम सियासी प्रयोग का भी लिटमस टेस्ट होना है. इस तरह से देखना है कि उपचुनाव की सियासी बाजी कौन मारता है?
आजमगढ़-रामपुर में मुकाबला
आजमगढ़ के अखाड़े में सपा से धर्मेंद्र यादव, बीजेपी से दिनेश लाल यादव (निरहुआ) और बसपा से शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली किस्मत आजमा रहे हैं. उपचुनाव में धर्मेंद्र यादव नए हैं, लेकिन निरहुआ और गुड्डू जमाली पुराने चेहरे हैं. रामपुर सीट की बात करें तो सपा से आसिम राजा और बीजेपी के घनश्याम सिंह लोधी के बीच सीधी लड़ाई है. ऐसे में देखें तो बसपा ने आजमगढ़ में मुस्लिम कैंडिडेट देकर दलित-मुस्लिम कार्ड चला है जबकि रामपुर में प्रत्याशी नहीं उताराकर भी सूबे के मुस्लिमों को एक सियासी संदेश देने की कवायद की है.
बसपा का गिरता सियासी ग्राफ
उत्तर प्रदेश की सियासत में 2012 चुनाव के बाद से बसपा का सियासी ग्राफ नीचे गिरना शुरू हुआ तो वो सिलसिला अभी तक थमा नहीं है. 2017 और अब 2022 में के चुनाव में बसपा ने अपने राजनीतिक इतिहास में सबसे निराशाजनक प्रदर्शन किया. बसपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीती थीं तो 2022 में उसे महज एक सीट ही मिल सकी है. इतना ही नहीं बसपा का वोटबैंक भी सूबे में गिरकर 12 फीसदी पर आ गया है.
मायावती के सामने अपने सियासी अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है, क्योंकि उनके दलित वोटबैंक पर बीजेपी से लेकर सपा की नजर है. ऐसे में मायावती आजमगढ़ और रामपुर उपचुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ को बनाने का सियासी प्रयोग किया है. इसी के तहत बसपा ने आजमगढ़ लोकसभा सीट पर मुबारकपुर से दोबार के विधायक रहे शाह आलम गुड्डू जमाली को उतारा है तो रामपुर सीट पर कैंडिडेट न उतारकर आजम खान के प्रति सहानुभूति दिखाया ताकि मुस्लिम समुदाय का दिल जीत सकें.
बसपा का हिट रहा फार्मूला
दिलचस्प बात यह है कि आजमगढ़ लोकसभा सीट पर बसपा दलित-मुस्लिम फॉर्मूला हिट रहा है. अकबर अहमद डंप्पी दो बार बसपा के दलित-मुस्लिम समीकरण के बदौलत जीतने में सफल रहे हैं. इतना ही नहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा ने आजमगढ़ में मुलायम सिंह यादव के खिलाफ गुड्डू जमाली को उतारकर इसी डी-एम फॉर्मूले का सियासी प्रयोग किया था, उस समय बसपा भले ही यह सीट न जीत सकी हो, लेकिन मुलायम सिंह यादव को जिताने के लिए सपा को काफी संघर्ष करना पड़ा था.
मुस्लिम दलों का समर्थन
बसपा 2022 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद एक बार फिर उसी दलित-मुस्लिम फार्मूले के भरोसे उपचुनाव में किस्मत आजमाने उतरी है. ऐसे में असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM से लेकर राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल तक ने बसपा कैंडिडेट गुड्डू जमाली को अपना समर्थन दे रखा है. वोटिंग से एक दिन पहले असदुद्दीन ओवैसी ने ट्वीट कर आजमगढ़ में बसपा को जिताने की अपील है तो राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल और कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रदेश महासचिव सबीहा अंसारी खुलकर बसपा का प्रचार कर रही है.
दरअसल, यूपी के 2022 विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं ने सपा के पक्ष में एकमुश्त वोट किया था, जिसके चलते सूबे की सियासत से कांग्रेस और बसपा का सफाया हो गया था. वहीं, बसपा का दलित-ब्राह्मण कार्ड नहीं चला, जिसके चलते बसपा ने सपा के यादव-मुस्लिम समीकरण के सामने दलित-मुस्लिम गठजोड़ का फॉर्मूला चला. मायावती ने रामपुर सीट छोड़कर में मुस्लिम वोटों की सहानुभूति का दांव चला तो आजमगढ़ में मुस्लिम कैंडिडेट को उतारकर अखिलेश यादव की मुश्किलें बढ़ी दी हैं.
आजमगढ़ का सियासी समीकरण
आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में करीब 18.38 लाख मतदाता हैं. इनमें करीब साढ़े तीन लाख यादव वोटर्स समेत ओबीसी के कुल मतदाताओं की संख्या साढे़ छह लाख से अधिक है. इसके अलावा साढ़े चार लाख दलित, साढ़े तीन लाख मुस्लिम और तीन लाख सवर्ण मतदाता हैं जबकि शेष अन्य जाति के वोट हैं. ओबीसी में यादव समाज जिस तरह से सपा के कोर वोटर हैं तो वहीं दलितों में बसपा का मूल वोटबैंक माने जाने वाले जाटवों की संख्या अधिक है. इस तरह से आजमगढ़ में दलित-मुस्लिम या फिर मुस्लिम-यादव दोनों ही सियासी समीकरण सफल रहे हैं, इस कैंबिनेशन के चलते बीजेपी अपनी सियासी जड़े यहां पर मजबूत नहीं कर सकी.
आजमगढ़ जिले में तो दस विधानसभा सीटें आती हैं, लेकिन लोकसभा क्षेत्र में पांच सीटें हैं. गोपालपुर, सगड़ी, मुबारकपुर, आजमगढ़ सदर और मेहनगर विधान सभा क्षेत्र हैं. इन सभी सीटों पर सपा के विधायक हैं. 2022 चुनाव में इन पांचों सीटों पर सपा को 4.35 लाख तो बीजेपी को 3.30 लाख और बसपा को 2.24 लाख मत मिले थे. विधानसभा चुनाव में भले ही बसपा को यूपी भर में महज 13 फीसदी वोट मिले हों, लेकिन आजमगढ़ में उसे 24 फीसदी वोट मिले थे.
आजमगढ़ में बसपा चार बार जीती
वहीं, अगर 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे को देखें तो अखिलेश यादव को कुल 6.21 लाख वोट मिले थे जबकि बसपा और सपा मिलकर चुनाव लड़ी थी. वहीं, बीजेपी के दिनेश लाल यादव को 3.61 लाख और सुभासपा को 10 हजार से अधिक वोट मिले थे. 2019 में यादव, मुस्लिम के साथ दलित वोट भी सपा के साथ था, लेकिन उपचुनाव में एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं. इतना ही नहीं आजमगढ़ में बसपा को करीब सवा दो लाख से तीन लाख वोट मिलते रहे हैं. 2022 के चुनाव में सवा दो लाख वोट मिले हैं. आजमगढ़ में बसपा चार बार सांसद बनाने में सफल रही है.
बसपा ने गुड्डू जमाली को मैदान में उतार कर मुस्लिम-दलित गठजोड़ पर दांव खेला तो अखिलेश यादव ने धर्मेंद्र यादव को उतारकर यादव-मुस्लिम समीकरण को मजबूत रखने की कवायद की है. वहीं, बीजेपी सवर्ण-यादव कैंबिनेशन बनाने के लिए निरहुआ पर दांव रखा है. इस तरह से तीनों ही दलों ने आजमगढ़ में सियासी प्रयोग किए हैं, लेकिन सबसे बड़ी सियासी चुनौती मायावती के लिए है.
बसपा के लिए सबसे कठिन चुनाव
मायावती अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. विधानसभा से लेकर विधान परिषद और राज्यसभा तक में एक-एक सदस्य ही बसपा के बचे हैं. ऐसे में बसपा के लिए आजमगढ़ का चुनाव अपने सियासी अस्तित्व के बचाए रखने के लिए भी अहम माना जा रहा है. बसपा का अगर दलित-मुस्लिम प्रयोग सफल हुआ तो 2024 के चुनाव में मायवाती इसी फार्मूले को लागू कर सकती है. बसपा ने उपचुनाव के जरिए सियासी थाह लेने की कोशिश की है, क्योंकि मायावती को पता है कि दोबारा से वापसी तभी हो सकती है जब उसके साथ कोई बड़ा वोटबैंक जुड़ेगा.
सूबे की मौजूदा सियासी परिस्थिति में मुस्लिम वोटबैंक को साधना ही मायावती के लिए सबसे आसान दिख रहा है, क्योंकि बीजेपी के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद मुस्लिम कशमकश में है. इतना ही नहीं सूबे की सियासत में मुस्लिम वोटर्स बड़ी संख्या में है. सूबे में 20 फीसदी मुस्लिम तो 22 फीसदी दलित वोट हैं. इसी के चलते मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने के लिए ही आजमगढ़ में गुड्डू जमाली को उतारा है तो रामपुर में आजम खान के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए वाकओवर दिया हैं.
मायावती का यह सियासी कैंबिनेशन उपचुनाव में सफल नहीं होता है तो बसपा के लिए 2024 की राह और भी पथरीली हो जाएगी, जिस पर हाथी का चलना मुश्किल भरा होगा. बसपा ने सूबे में तमाम सियासी प्रयोग करके देख चुकी है, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिल सकी. 2022 में दलित-ब्राह्मण समीकरण भी फुस्स हो चुका है, जिसके चलते सतीश चंद्र मिश्रा को साइड लाइन कर दिया गया है. ऐसे में दलित-मुस्लिम प्रयोग भी फेल रहा तो बसपा के लिए अपना सियासी अस्तित्व का संकतट गहरा जाएगा?