मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता और जाने-माने समाजसेवी संदीप पांडे को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में प्रोफेसर के पद से हटा दिया गया है, उन पर नक्सलवाद और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप है. ये फैसला बीएचयू के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की एक मीटिंग में लिया गया था जिसको लेकर आधिकारिक आदेश गुरुवार शाम जारी किया.
दरअसल, संदीप पांडे पर नक्सलियों से सहानुभूति रखने और निर्भया पर बनी एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग का कार्यक्रम रखने का आरोप था जिस पर भारत में रोक लगाई गई थी हालांकि BHU के प्रॉक्टर के एतराज के बाद उन्होंने वो कार्यक्रम रद्द कर दिया था. संदीप पांडे ने खुद पर लगे आरोपों को खारिज करते हुए मामला कोर्ट तक ले जाने और मानहानि का मुकदमा करने की धमकी दी है. उन्होंने कहा है कि अगर वो सचमुच राष्ट्र विरोधी और नक्सलवादी हैं तो विश्वविद्यालय को उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उन्हें जेल भिजवाना चाहिए.
कुलपति की योग्यता पर उठाया सवाल
संदीप पांडे का आरोप है कि विश्वविद्यालय ने उन्हें निकालने का फैसला आरएसएस की मानसिकता से ग्रस्त हो कर लिया है. पांडे ने बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को आरएसएस से संबद्ध बताया है और यहां तक आरोप लगाया है कि कुलपति जीसी त्रिपाठी दरअसल वीसी बनने के लायक ही नहीं हैं. उनका कहना है कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहते हुए उन्होंने वर्षों से कोई काम नहीं किया है और न ही उनके नाम से कोई नया पेपर पब्लिश हुआ है. संदीप पांडे ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय पर आरोप लगाया कि कुलपति के तौर पर और बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के अध्यक्ष के तौर पर त्रिपाठी को मंत्रालय द्वारा थोपा गया है.
संदीप पांडे ने कही ये बातें-
-आरएसएस के लोग अनर्गल आरोप लगा रहे हैं. मैं तो कहता हूं अगर आरोप सही हैं तो मुझे जेल भेजा जाए. निर्भया पर एक डॉक्यूमेंट्री जिसे भारत सरकार ने बैन कर दिया था उसे मैं अपनी कक्षा में दिखाना चाहता था क्योंकि मैं चाहता था कि महिलाओं के खिलाफ अपराध पर चर्चा हो. मगर प्रॉक्टर और पुलिस के कहने पर मैंने वो नहीं दिखाई. हालांकि चर्चा हुई और एक दूसरी डॉक्यूमेंट्री दिखाई गई. तो इसी आधार पर वो मुझे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल कहते हैं.
- मैं विचारधारा से गांधीवादी हूं. मैं नक्सली नहीं हूं लेकिन नक्सलवादी जिस कारण से नक्सलवादी बनते हैं यानी गरीबी गैर बराबरी के मुद्दे. इन मुद्दों पर मैं भी काम करता हूं. बस तरीकों में फर्क है. वो हिंसा की बात स्वीकार करते हैं हम लोग अहिंसक ढंग से वो काम करते हैं. मेरा मानना है कि उनका मुद्दा एकदम सही है काम करने का बस उनके तरीकों से असहमति है.
- आरएसएस वालों को ही ज्यादा परेशानी है मुझसे. असल में इन्हें खतरा मुझसे ये है कि जो मैं काम करता हूं छात्रों और आसपास के गांवों में और ठेले-पटरी वालों के बीच. इनको लगता है कि अगर मैं न रहूं तो शायद ये लोग इनकी शाखाओं में जाएंगे और इनके कामों से जुड़ेंगे. इनको मुझसे वैचारिक खतरा है.
- ये असहिष्णुता का ही मामला है. आरएसएस वाले ऐसे लोग हैं जो विरोध तो छोड़िए असहमति भी नहीं स्वीकार करते हैं. ये चाहते हैं कि सिर्फ एक सोच वालों का शैक्षणिक संस्थानों पर कब्जा रहे. वहां आने वाले लोग भी इन्हीं की विचारधारा को मानें. लेकिन वो बांटने वाली जो विचारधारा है जिसमें हिंसा के बीज हैं ये देश कैसे भूल सकता है कि यही विचारधारा महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार है.
- मैं अपनी नौकरी के लिए तो कोर्ट नहीं जाउंगा, क्योंकि मैं वहां संविदा पर था एक साल के लिए. हालांकि ये मेरा तीसरा साल था और मैं और पढ़ाना चाहता था. अब मुझे निकालने की परिस्थितियां बनीं हैं तो मैं कहीं और बच्चों को पढ़ाऊंगा.
- मैं सूचना के अधिकार के तहत उस मीटिंग के मिनट्स निकलवाऊंगा जहां मेरे ऊपर नक्सलवादी और देशद्रोही होने का आरोप लगाया गया. और वो कार्रवाई अगर मुझे मिल जाती है तो निश्चित रूप से वो जो तीन प्रोफेसर हैं जिनमें कुलपति शामिल हैं उन पर मानहानि का मुकदमा करूंगा.