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अजित सिंह के उत्तराधिकारी चुने गए जयंत चौधरी, RLD की राह में कई चुनौतियां

राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजीत सिंह के निधन के बाद अब उनके सियासी उत्तराधिकारी के चयन के लिए आज (मंगलवार) को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक है, जिसमें आरएलडी की कमान जयंत चौधरी को सौंपी गई. पिता अजित सिंह के इस दुनिया से जाने के बाद जयंत चौधरी पर पूरे 'जाटलैंड' को संभालने और पार्टी को मजबूत करने की जिम्मेदारी होगी.

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जयंत चौधरी और चौधरी अजित सिंह
जयंत चौधरी और चौधरी अजित सिंह
स्टोरी हाइलाइट्स
  • आरएलडी के अध्यक्ष के लिए कार्यकारिणी की बैठक
  • चौधरी अजित सिंह के उत्तराधिकारी जयंत चौधरी बने
  • आरएलडी पिछले दो चुनाव से खाता नहीं खोल पाई

पश्चिम उत्तर प्रदेश की सियासत के दिग्गज नेता व राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजीत सिंह के निधन के बाद अब उनके सियासी उत्तराधिकारी के चयन के लिए आज (मंगलवार) को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक है, जिसमें आरएलडी की कमान जयंत चौधरी को सौंपी गई. पिता अजित सिंह के इस दुनिया से जाने के बाद जयंत चौधरी पर पूरे 'जाटलैंड' को संभालने और पार्टी को मजबूत करने की जिम्मेदारी होगी. हालांकि, सूबे की बदली राजनीतिक परिस्थितियों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत में आरएलडी को धुरी बनाकर रखना जयंत चौधरी के लिए काफी चुनौतीपूर्ण होगा. 

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आरएलडी के अध्यक्ष के चुनाव के लिए पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मंगलवार को बुलाई गई है. कोरोना प्रकोप के चलते यह बैठक वर्चुअल हुई. कार्यकारिणी में 34 सदस्य हैं, जिनके द्वारा अजित सिंह के उत्तराधिकारी के चयन के लिए जयंत चौधरी के नाम का प्रस्ताव पास होगा, जिस पर सभी सदस्यों ने अपनी मंजूरी दी है. जयंत चौधरी को राष्ट्रीय लोकदल की कमान ऐसे समय में मिला है जब पार्टी सबसे कमजोर स्थिति में खड़ी है. 

जयंत चौधरी के कंधों पर यह चुनौती ऐसे समय में आई है, जब आरएलडी का प्रतिनिधित्व न लोकसभा में है और न विधानसभा में है. 2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी का एकमात्र विधायक छपरौली क्षेत्र से चुना गया, जिसने बाद में बीजेपी का दामन थाम लिया. वहीं, आरएलडी के मुकाबले में 325 सीट जीतने वाली बीजेपी और उनके दादा की विरासत पर कब्जा जमा चुकी सपा है. सपा की कमान अब पूरी तरह से मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के हाथों में है.  

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वहीं, मोदी लहर के चलते चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी पिछले दो लोकसभा चुनावों से अपने मजबूत गढ़ से सांसद निर्वाचित नहीं हो पाए थे. ऐसे में आरएलडी में फिर से जान डालना जयंत चौधरी की पहली बड़ी अग्निपरीक्षा होगी. हालिया पंचायत चुनावों के नतीजे आरएलडी के लिए शुभ संकेत भले ही माने जाएं, लेकिन इसी माहौल को साल 2022 तक बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी. 

जाटों को जोड़कर रखने की चुनौती
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट राजनीति का केंद्र बागपत को माना जाता रहा है. चौधरी चरण सिंह से लेकर चौधरी अजित सिंह तक ने अपने इस दुर्ग को मजबूत बनाए रखा था, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से यह पूरी तरह से बिखर गया. बीजेपी के उभार के बाद यहां हालात पूरी तरह से बदले हैं. बीजेपी यहां से सतपाल सिंह और संजीव बालियान जैसे जाट नेताओं को स्थापित करने में सफल रही. मुजफ्फरनगर क्षेत्र में संजीव बालियान ने जिस तरह संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी बने चौधरी अजित सिंह को मात दी, उससे भी आरएलडी की साख को बट्टा लगा है. इतना ही नहीं, जयंत चौधरी को भी बागपत में मात मिली. ऐसे में अब जयंत चौधरी को दोबारा से अपनी सियासत को मजबूती से खड़ा करना है तो अपने जाट समुदाय को दोबारा से आरएलडी के साथ जोड़ने की चुनौती होगी.

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जाट-मुस्लिम समीकरण बनाने का चैलेंज
पश्चिम यूपी में आरएलडी जाट और मुस्लिम समीकरण के सहारे किंगमेकर की भूमिका अदा करती रही है, लेकिन 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के बाद आरएलडी का यह समीकरण पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है. जाट और मुस्लिम अलग-अलग खड़े नजर आ रहे हैं, लेकिन किसान आंदोलन के बाद पश्चिम यूपी में एक बार फिर दोनों समुदाय एक साथ खड़े दिखे हैं. ऐसे में जयंत चौधरी को अपने पिता और दादा की सियासी विरासत को बचाए रखने के लिए जाट-मुस्लिम समीकरण को साधकर रखना होगा, क्योंकि पश्चिम यूपी में यह दोनों ही समुदाय काफी अहम भूमिका में है. 

तालमेल बिठाकर चलने की चुनौती
कृषि कानून विरोधी आंदोलन से राकेश टिकैत की बढ़ती लोकप्रियता के आगे भी जयंत चौधरी को जाटों में अपनी पकड़ सिद्ध करनी होगी. हालांकि, किसान आंदोलन के जरिए जंयत चौधरी ने अपनी सक्रियता को पश्चिम यूपी में बढ़ाया है और पार्टी के खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कवायद में कुछ हद तक कामयाब हुए है. यूपी के पंचायत चुनाव में इसका असर भी दिखा है, लेकिन राकेश टिकैत को कैसे और कब तक साधकर रखना है, यह जयंत चौधरी के लिए बड़ी चुनौती होगी. हालांकि, टिकैत का अभी तक जयंत को पूरा समर्थन है. 

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पंचायत चुनाव से मिली संजीवनी
करीब सात साल बाद आरएलडी के खाते में खुश होने का अवसर आया है. चौधरी अजित  सिंह के किसान आंदोलन के पक्ष में लिए गए एक निर्णय ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में आरएलडी को संजीवनी दे दी है. जब चौधरी अजित जीवन और मृत्यु के बीच में मेदांता अस्पताल में संघर्ष कर रहे थे, तब उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 200 से अधिक सीटों को जीत चुकी थी. 

यह सुखद संदेश सुनने के लिए चौधरी अजित सिंह नहीं हैं. अब यह सब कुछ आगे पुत्र और मथुरा के पूर्व सांसद जयंत चौधरी के जिम्मे है. जयंत चौधरी को इस राजनीतिक विरासत की बारीकियों को समझकर आगे बढ़ना होगा. राजनीति के जानकार कहते हैं कि युवा जयंत चौधरी के लिए यह एक परीक्षा भी है. इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि पंचायत चुनाव में सपा ने आरएलडी को समर्थन दे रखा था. इसी के बदौलत पश्चिम यूपी में कई जिलों में जाट और मुस्लिम मतदाता काफी लंबे समय के बाद एक साथ खड़े नजर आए थे. मेरठ, बागपत, बड़ौत, शामली, बिजनौर, मुजफ्फरनगर तक के आरएलडी के नेताओं को लग रहा कि 2022 के चुनाव में पार्टी बेहतर कर सकती है.

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गठबंधन का फॉर्मूला तय करना होगा
मुलायम सिंह यादव जयंत चौधरी के दादा चौधरी चरण सिंह को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं. वे चौधरी अजित सिंह को अपना गुरुभाई कहते थे, लेकिन दिलचस्प है कि दिसंबर 1989 में उत्तर प्रदेश की सत्ता मुलायम ने राजनीतिक चतुराई और अपनी सूझबूझ के जरिये चौधरी अजित सिंह के जबड़े से खींच ली थी. इस तरह से अजित सिंह सूबे के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे. ऐसे में जयंत चौधरी अब अखिलेश यादव के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं. ऐसे में देखना होगा कि कैसे वह अपना सियासी समीकरण बनाते हैं? 


 

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