उत्तर प्रदेश में पिछले दो दशक से अनुसूचित जाति और ओबीसी श्रेणी के बीच 17 जातियां झूल रही हैं. मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ की सरकार तक 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की कवायद कर चुकी है, लेकिन कभी कानूनी दांवपेच तो कभी अदालत के चलते ये जातियां एससी आरक्षण पाने से वंचित हैं.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यूपी की 17 ओबीसी जातियों को अनसुचित जाति की कैटेगरी में शामिल करने वाले नोटिफिकेशन को ऐसे समय रद्द किया है जब 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर सियासी तानाबाना बुना जा रहा है. केंद्र और राज्य दोनों जगह पर बीजेपी की सरकारे हैं. ओबीसी की ये सभी 17 जातियां फिलहाल बीजेपी की कोर वोटबैंक मानी जाती हैं. इसके चलते ही बीजेपी पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है.
बीजेपी ने एससी को मनाया तो रूठ सकता है ओबीसी
उत्तर प्रदेश में कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, राजभर, धीमान, बाथम, तुरहा, गोड़िया, भर, मांझी और मछुआ ऐसी 17 अति पिछड़ी जातियां हैं. ये सभी जातियां एससी में शामिल किए जाने मांग रही हैं.
यह मामला बीजेपी के गले की फांस बनता जा रहा है, क्योंकि सरकार अगर उन्हें एससी में शामिल करती है तो 22 फीसदी दलित आरक्षण के दायरे को बढ़ाने की मांग उठ सकती है.
वहीं, दूसरी तरफ अगर बीजेपी सरकार ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण में से 17 अतिपछड़ी जातियों के लिए कोई निर्राधित कोटा तय किया जाता है, तो कुर्मी, यादव, कुशवाहा, सुनार, लोध, जाट जैसी ओबीसी की जातियों के नाराज होने का खतरा है.
इसी के चलते बीजेपी कशमकश में फंसी हुई है और ऊपर से उसके सहयोगी निषाद पार्टी का भी दबाव बढ़ रहा है. ऐसे में बीजेपी इन 17 ओबीसी जातियों को साधे रखने के लिए नया कोई दांव चलने की कवायद में है.
बीजेपी के सामने यह है रास्ता
उत्तर प्रदेश में डबल इंजन की बीजेपी सरकार के सामने दो रास्ते बताए जा रहे हैं, जो नियमों के भंवर में फंसाए बिना केवट, निषाद, राजभर सहित 17 जातियों को अनुसूचित जाति का आरक्षण दिला सकती है, लेकिन उसमें सियासी नफा-नुकसान भी है.
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी अनुसूचित संविधान आदेश 1950 के आधार पर जो जातियां अनुसूचित जाति की श्रेणी में थीं, उन्हें दोबारा से शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र को भेज सकती है.
क्या है अनुसूचित संविधान आदेश 1950
अनुसूचित संविधान आदेश 1950 के आधार पर उन्हें 1963 तक अनुसूचित जाति का आरक्षण मिला, लेकिन फिर उसके बाद से उन्हें जनरल में डाल दिया गया. इसके बाद मंडल कमीशन ने 1993 में ओबीसी के शामिल कर दिया. ओबीसी के आरक्षण का यादव-कुर्मी जैसा लाभ इन अतिपिछड़ी जातियों को नहीं मिल सका. ऐसे में ये जातियां एससी में शामिल होने या फिर अपने लिए अलग से आरक्षण की डिमांड करने लगी.
किसी जाति को SC में नहीं शामिल कर सकता राज्य
सूबे में अतिपिछड़े वोटबैंक को देखते हुए साल 2005 में मुलायम सिंह यादव ने पहले उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल करने का आदेश जारी कर दिया. लेकिन राज्य को किसी जाति को एससी में शामिल करने का अधिकार नहीं है, इसलिए हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी.
इसके बाद अखिलेश यादव ने 2016 में में इन्हीं 17 जातियों को एससी श्रेणी में शामिल करने का दांव चला. इसके बाद उसी अनुपालन के संदर्भ में कोर्ट के निर्णय पर योगी सरकार ने 2019 में अधिसूचना जारी की, लेकिन अधिसूचनाओं को हाई कोर्ट ने हाल ही में रद कर दिया है.
मोदी सरकार को भेजा जा सकता है प्रस्ताव
सूबे में अतिपिछड़ी जातियों के सियासी समीकरण को देखते हुए योगी सरकार उनके आरक्षण को लेकर मंथन करने में जुट गई है. पिछले दिनों संजय निषाद और राकेश सचान के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बैठक की थी और इस मसले का हल निकालने के लिए रणनीति बनाई गई है.
यूपी सरकार विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कराकर दोबारा से अनुशंसा के साथ मोदी सरकार को भेजने का कदम उठा सकती है, क्योंकि यही सबसे आसान विकल्प दिख रहा है. संविधान आदेश 1950 का अनुपालन कराने के लिए स्पष्टीकरण के साथ अधिसूचना जारी करे और उसमें इन जातियों से शामिल को दोबारा से शामिल कराए.
लेकिन सामाजिक विरोध पैदा होने का है डर
विशेषज्ञों का कहना है कि इन जातियों को एससी में शामिल करने को लेकर सामाजिक विरोध भी पैदा हो सकती है. एससी में पहले से शामिल जातियां इसका विरोध कर सकती हैं. ऐसे में पहले से ही जब 50 फीसदी आरक्षण की सीमा पार हो चुकी है.
केंद्र अलग से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10 फीसदी आरक्षण दे चुका है, तो इन 17 ओबीसी जातियों को अलग से 1-2 फीसदी कोटा देने का दांव चल सकती है, लेकिन उसके लिए ओबीसी की दूसरी जातियों को भरोसे में लेना होगा. ऐसे में देखना है कि इससे कैसे बीजेपी पार पाती है?