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यूपी: 7 शिक्षण संस्थानों का सरकारीकरण रद्द करने के आदेश को HC ने रखा बरकरार, जानिए क्या कहा

23 दिसंबर, 2016 को सपा सरकार ने एक शासनादेश जारी कर सात शिक्षण संस्थानों का पूरी तरह से सरकारीकरण कर दिया था. बाद में 13 फरवरी, 2018 को बीजेपी सरकार ने इसे निरस्त कर दिया. पीठ ने पिछली सरकार के उक्त शासनादेश को संदेहास्पद करार देते हुए तल्ख टिप्पणी भी की है.

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Allahabad High Court
Allahabad High Court
स्टोरी हाइलाइट्स
  • शिक्षण संस्थानों के सरकारीकरण करने के आदेश को निरस्त कर दिया था
  • हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने फैसले को सही ठहराया है

यूपी की पूर्व सपा सरकार में 7 शिक्षण संस्थानों का पूर्ण सरकारीकरण करने के आदेश को बीजेपी सरकार ने निरस्त कर दिया था, जिसको बाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. अब इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने सुनवाई करते हुए निरस्त आदेश को सही ठहराया है और कहा है कि चुनावों के मद्देनजर महत्वपूर्ण लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए यह शासनादेश जारी किया गया था. इसे निरस्त किया जाना ही ठीक है.

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23 दिसंबर, 2016 को सपा सरकार ने एक शासनादेश जारी कर सात शिक्षण संस्थानों का पूरी तरह से सरकारीकरण कर दिया था. बाद में 13 फरवरी, 2018 को बीजेपी सरकार ने इसे निरस्त कर दिया. पीठ ने पिछली सरकार के उक्त शासनादेश को संदेहास्पद करार देते हुए तल्ख टिप्पणी भी की है. बेंच ने कहा है कि चुनावों को मद्देनजर यह महज कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए जारी किया गया लगता है.

जस्टिस राजेश सिंह चैहान की सिंगल बेंच ने यह आदेश सुभाष कुमार व 78 अन्य समेत सैकड़ों अध्यापकों व कर्मचारियों की ओर से दाखिल अलग-अलग याचिकाओं पर कहा है. याचिकाकर्ताओं का कहना था कि 23 दिसंबर, 2016 को एक शासनादेश जारी कर राज्य सरकार ने सात शिक्षण संस्थानों का सरकारीकरण किया था. वे सरकारी किए गए संस्थानों के अध्यापक व द्वितीय तथा चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. याचिकाकर्ताओं का कहना था कि एक निर्णय जो पिछली सरकार द्वारा लिया गया था और जिसे तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मंजूरी दी थी, उसे दूसरे राजनीतिक दल की सरकार बन जाने के कारण निरस्त किया गया, जो उचित नहीं है. सुनवाई के दौरान इस याचिका का राज्य सरकार की ओर से जोरदार विरोध किया गया. कहा गया कि किसी संस्थान के सरकारीकरण के लिए जो जरूरी चीजें होती हैं, उन्हें पूरा नहीं किया गया था.

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सिंगल बेंच ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद पारित अपने आदेश में कहा कि सरकारीकरण के पूर्व न तो पदों की संस्तुति की गई और न ही वित्तीय मंजूरी ली गई. आठ मार्च, 2017 को विभाग के प्रमुख सचिव ने नोटिंग कर फाइल को विभाग के मंत्री के पास भेज दिया. विभाग के मंत्री ने उस पर हस्ताक्षर किया, लेकिन कोई तारीख नहीं डाली. जिसके बाद फाइल तत्कालीन मुख्यमंत्री के पास भेजी गई. उन्होंने भी अपने हस्ताक्षर तो किए लेकिन तारीख का जिक्र नहीं किया. पुनः प्रमुख सचिव ने अपने हस्ताक्षर किए और 14 मार्च, 2017 की तारीख डाली. बेंच ने अपने आदेश में कहा है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने आठ मार्च, 2017 अथवा 14 मार्च, 2017 को मंजूरी दी. जबकि चार जनवरी, 2017 को प्रदेश में विधान सभा चुनाव के मद्देनजर आचार संहिता लागू हो चुकी थी. आठ मार्च, 2017 को मतदान का अंतिम चरण था और 11 मार्च, 2017 को मतों की गिनती हुई. यदि तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा दी गई मंजूरी की तारीख 14 मार्च, 2017 थी, तो उस समय तक यह घोषित हो चुका था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री व उनकी पार्टी चुनाव हार चुकी है. इसका अर्थ है कि उक्त मंजूरी विधान सभा चुनाव हारने के बाद दी गई. 

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कोर्ट ने आदेश में कहा कि इन परिस्थितियों के मद्देनजर 23 दिसंबर, 2016 का उक्त शासनादेश संदेहास्पद प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि चुनावों को देखते हुए कुछ लोगों अथवा संस्थानों को लाभ पहुंचाने के लिए उक्त शासनादेश जारी किया गया था. जिसको निरस्त किया जाना ठीक है. लिहाज वर्ष 2016 में जारी एक शासनादेश को निरस्त करने के फैसले को हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने वाजिब करार दिया है.

 

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